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इक चतुर नार…बड़ी होशियार

हंसी ठट्ठा
हंसी ठट्ठा
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“हद हो गई यार ये तो….हम अभी अंधे हुए नहीं और इन स्सालों के हाथ बटेर भी लग गई…इस सुसरे लोकराज में जो हो जाए…थोड़ा है”मैं गुस्से से अपने  पैर पटकता हुआ बोला…

“क्या हुआ तनेजा जी?…इस कदर बौखलाए-बौखलाए से क्यों घूम रहे हैं?”…

“कमाल करते हैं शर्मा जी आप भी…बौखलाऊँ नहीं तो और क्या करूँ?…पहले तो औकात ना होने के बावजूद हम लोगों को महफ़िल सजाने का सुनहरा मौक़ा दे दिया जाता है और फिर चलो …भूले से ही सही…दे दिया तो दे दिया…अब काहे को बेफालतू में इस खुशनुमा माहौल के तम्बू का बम्बू खींच बेकार की  कुत्ता घसीटी करते हैं?”…

“मैं कुछ समझा नहीं”…

“जब पता था इन स्साले फिरंगी कचालुयों को पहले दिन से ही कि…हमारे बस का नहीं है इत्ते बड़े टीमटाम को ठीक से हैंडल करना …तो फिर काहे को बेफालतू में इस बड़े महा आयोजन की पूरी जिम्मेदारी हम  जैसे निखट्टुयों के गंजियाते सर पे डाल…खुद लौटन कबूतर के माफिक अपनी चौंधिया कर कौंधियाती हुई आँखें मूँद ली?”…

“आप लिंगफिशर द्वारा प्रायोजित इंटर मोहल्ला ‘पलंग कबड्डी’ के ट्वैंटी-ट्वैंटी मैचों की ही बात कर रहे हैं ना?”…

“हुंह!…आप और आपके ‘पलंग कबड्डी’ के ट्वैंटी-ट्वैंटी मैच…लुल्लू जब भी मूतेगा…छोटी धार ही मूतेगा”…

“म्म…मैं कुछ समझा नहीं”…

“अरे!…बेवाकूफ….मैं दिल्ली में आयोजित हुए कामनवेल्थ खेलों के महा आयोजन की बात कर रहा हूँ …ना कि तुम्हारे इन तथाकथित ‘पलंग कबड्डी’ के ट्वैंटी-ट्वैंटी जैसे तुच्छ…निकृष्ट एवं छोटे मैचों की”…

“तनेजा जी!..आप चाहें तो बेशक सौ जूता मार लीजिए हमको…मन करे तो दो-चार ठौ गाली-वाली भी दे दीजिए लेकिन प्लीज़…इन मैचों को छोटा …निकृष्ट एवं तुच्छ  कह के इनके साथ-साथ मेरी और मेरे पूरे खानदान की तौहीन ना कीजिये”…

“क्यों?…तेरा फूफ्फा भाग ले रहा है क्या इनमें?”…

“अरे!…अगर फूफ्फा भाग ले रहा होता तो आप बेशक एक के बजाए दो बार बुराई कर लेते…मुझे बुरा नहीं लगता..बरसों पुराना..छतीस का आंकड़ा जो है मेरा उनका …लेकिन ऊपरवाले के फजल-औ-करम से इनमें मेरा फूफ्फा नहीं बल्कि मेरा सबसे प्यारा…जग से न्यारा…खुद का अपना  राजदुलारा भाग ले रहा है”…

“सक्रिय तौर पर या फिर…ऐसे ही…महज़ टाईमपास के लिए?”…

“ऐसे ही…महज़ टाईमपास के लिए…से क्या मतलब?”…

“ऐसे ही…मतलब…ऐसे ही..बिना किसी औचित्य एवं मकसद के”मैं अपनी बाहें घुमा बेतकलुफ्फ़ सा होता हुआ बोला ..

“खाली…ऐसे ही…फ़ोकट में…दूर बैठ के तमाशा देखने से भला दो दूनी चार कहाँ होता है तनेजा जी?…पूरी तरह से एक्टिव और सक्रिय होना पड़ता है इस ‘पलंग कबड्डी’ के बरसों पुराने..नायाब खेल में…तब जा के कहीं मनवांछित फल की प्राप्ति होती है”…

“ओह!…मैंने तो सोचा कि…शायद…ऐसे ही…बेकार में…

“इतना टाईम किसके पास है तनेजा जी कि कोई बेकार में ही अपना टाईम खोटी करता फिरे?”…

“हाँ!…ये बात तो है”…

“ये तो पहलेपहल जब मुझे पता चला कि पूरे इक्यावन सौ रूपए का पहला इनाम रखा गया है फर्स्ट रनरअप के लिए तो मैंने.….

“तो क्या महज़ इक्यावन सौ रुपये के लिए ही आपने अपना इकसठ-बासठ लाख रूपए वाला ज़मीर बेच दिया?”…

“तनेजा जी!…बात इकसठ या इक्यावन की नहीं है…बात है कायदे की…बात है मुद्दे की…बात है हमारी खोती हुई अस्मिता…हमारे खत्म होते हुए आत्म सम्मान की”…

“वो कैसे?”…

“हमारे इलाके में ही जो रही थी इस बार की ट्वैंटी-ट्वैंटी चैम्पियनशिप”…

“तो?”…

“तो हमारे होते हुए भला कोई बाहर का बन्दा..कैसे आ के..हमारी नाकों तले …हमें ही चने चबवा के…बिना किसीप्रकार का खुड़का किए…चुपचाप निकल जाता?”…

“हम्म!…फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…मैंने बस ठान लिया कि कोई और भले ही तैयार हो ना हो इस शैंटी-फ़्लैट मुकाबले के लिए…मुझे अपने ‘पट्ठे’ को ही खूब घी-बादाम खिला के और तेल पिला के इस चैम्पियनशिप के मुकाबले में उतारना है”…

“गुड!…लेकिन फिर आपने अपने उस तथाकथित ‘पट्ठे’ के बजाए अपने ही सुपुत्र को क्यों मैदान में उतार दिया?”…

“अब क्या बताऊँ तनेजा जी?…बढ़ती उम्र में घटते जोश का तकाज़ा”…

“मैं कुछ समझा नहीं”…

“पूरे बयालीस बसंत देख चुका है मेरा पट्ठा”….

“तो?”…

“आने वाले समय का मंज़र भांप के ही पसीने छूट गए उसके”…

“ओह!…फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…शर्म से पानी-पानी हो V.R.S(वी.आर.एस) ले..बीच बाज़ार के चुपचाप..दुबक के बैठ गया”….

“वी.आर.एस माने?”…

“अपनी मर्जी से रिटायरमैंट”…

“हम्म!…फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…मुकाबला सर पे सवार होने को बेताब था और कोई मैदान में डटने तो क्या?…उतरने तक को तैयार नहीं”…

“ओह!…

“कोई और चारा ना देख खुद मुझे ही अपने अबोध बालक को इस सब की ट्रेनिंग देनी पड़ी”…

“अबोध?…उम्र कितनी है उसकी?…कहीं वो नाबालिग तो नहीं?”मेरा सशंकित हो आशंकित होता हुआ स्वर..

“क्या बात कर रहे हैं तनेजा जी आप भी?…इस बसंतपंचमी को कसम से…पूरे इक्कीस का हो जाएगा वो”…

“तो फिर किस बिनाह पर तुम उसे अबोध कह…निरपेक्ष रूप से उसका पक्ष रख रहे हो?”…

“अब उम्र से क्या होता है तनेजा जी?…जिसे किसी चीज़ का बोध ही ना हो तो उसे तो अबोध ही कहेंगे ना?”…

“हम्म!…ये तो है”…

“जी!…

“फिर क्या हुआ?”…

“पूरे तीन महीने की पसीना निचोड़ ट्रेनिंग दी है मैंने खुद उसे अपने हाथों से”..

“ह्ह….हाथों से?”…

“जी!…हाँ!…इन्हीं नायब हाथों से”शर्मा जी गर्व से प्रफुल्लित हो…हवा में अपने हाथ ऊपर-नीचे कर उन्हें नचाते हुए बोले

“क्यों?…आस-पड़ोस के रेड लाईट एरिया वाले वालंटियर्स क्या प्लेग की बीमारी से मर-मरा गए थे जो आप खुद ही अपना मुंह काला करने को उतावले हो उठे”…

“मुंह नहीं…हाथ”…

“हाथ?”..

“जी!…जब अपने हाथ स्वयं जगन्नाथ के याने के…भगवान के दिए हुए हैं तो किसी दूसरे पे क्या भरोसा करना?”…

“हम्म!…फिर क्या हुआ?”..

“मेरी तिलमिला कर कराहती हुई कमर का बिलबिला कर  बंटाधार”…

“मैं कुछ समझा नहीं”…

“उस नौसिखिए को एक-एक दाव और उसका तोड़..आक्रमण एवं बचाव के सारे गुर वगैरा सिखाते-सिखाते तो….आह!…

“क्या हुआ?”…

“अनाड़ी का खेल और खेल का सत्यनाश”…

“क्या मतलब?”..

“उस नौसिखिए को ये सब सिखाते-सिखाते तो मेरी कमर भी…मुझसे जुबान लड़ा..अब तो जवाब देने लगी है”शर्मा जी दर्द से करहाते हुए बोले …

“ओह!…तो क्या इतनी कमरतोड़….पसीना निचोड़…दर्दभरी मेहनत के बाद कोई मैडल-वैडल भी मिला?”मेरे स्वर में उत्सुकता का पुट था…

“टट्टू”…

“क्या मतलब?”मैं चौंका…

“अजी!…काहे का मैडल?…सब कुछ फिक्स था जी…फिक्स”…

“क्क्या?…क्या कह रहे हो?”…

“जी!…जब किसी नए सिखंदड़ के आगे जानबूझ कर आप पहाड़ जैसा  पहाड़ीन सौंदर्य ऊप्स!…सॉरी..प्रतिद्वंदी खड़ा कर दोगे तो कोई मैडल-वैडल क्या ख़ाक जीतेगा?”… ‌

“तो तुम्हारा ये तथाकथित जान से प्यारा…राजदुलारा क्या कोई नामर्द था जो घड़ी दो घड़ी भी ठीक से खड़ा नहीं रह पाया उसके आगे?”मेरा गुस्से से लाल-पीला होता हुआ तैश भरा स्वर …

“तनेजा जी!…घड़ी दो घड़ी की बात होती तो और बात थी…मैं तो खुद गवाह हूँ प्रत्यक्ष इस बात का कि वो पूरे दस मिनट तक पूरी तत्परता एवं तन्मयता के साथ आगे-पीछे होता रहा उसके विध्वंकारी दाव से बचने के लिए लेकिन जब सामने वाला ही काईंया…चतुर एवं शातिर टाईप का खिलाड़ी हो तो कोई कर भी क्या सकता है?”शर्मा जी सफाई सी देते हुए बोले …

“डूब के तो मर सकता है”मेरा गुस्सा कम होने को नहीं आ रहा था …

“म्म…मैं कुछ समझा नहीं”…

“वैसे!…अब क्या हाल है उसका?”ना जाने क्यों मेरा मृदुल होता हुआ स्वर …

“बड़ा बुरा हाल है बेचारे का…रूपजाल के झमेले में फँस..लपेटे में आ गया बेचारा..शर्म के मारे खुद अपनेआप से नज़रें नहीं मिला पा रहा है “शर्मा जी के स्वर में सहानुभूति थी …

“हम्म!…दैट्स नैचुरल…स्वाभाविक है ये सब…ऐसा तो खुद मेरे साथ कई बार हो चुका है”मैं उनकी हाँ में हाँ मिलाता हुआ बोला …

“जी…

“वैसे..आजकल कर क्या रहा है?”…

“कुछ खास नहीं…बस…ऐसे ही..चुपचाप पलंग पे पड़े-पड़े …बेचारा…मायूस हो के बार-बार यही गीत गुनगुनाता रहता है कि….

‘इक चतुर नार…बड़ी होशियार…

कर के श्रृंगार…मेरे मन के द्वार …

वो घुसत जात है…हम अटक जात है”…

“ओह!…

“आप कुछ अन्धे और बटेर वाली बात कर रहे थे ना?”…

“जी!…

“लेकिन आप तो मुझे एकदम से ठीकठाक और भले-चंगे दिख रहे हैं”शर्मा जी गौर से मेरे डेल्ले को फैला…उछल कर उसके अन्दर झांकने का प्रयास करते हुए बोले …

“ह्ह…हटो…हटो पीछे…मैंने कब कहा कि मैं अंधा हो गया हूँ?”मैं हड़बड़ा कर पीछे हटता हुआ बोला…

“अभी आप ही ने तो कहा कि….

“ध्यान से याद करो…मैंने कहा था कि…अभी हम अन्धे हुए नहीं और उनके हाथ में बटेर लग गई”…

“जी!…लेकिन जब बटेर का मामला था तो आप अन्धे हुए क्यों नहीं?”शर्मा जी के स्वर में असमंजस था…

“अब क्या करें शर्मा जी?…इस ससुरे..लोकराज में जो हो जाए..थोड़ा है”…

“मैं कुछ समझा नहीं”…

“सुसरे को कई बार विनती भी कर ली और बीच चौराहे के नाक भी रगड़ के दिखा दी कि….

“देख ले…अपने फायदे के लिए कितना नीचे गिर सकता हूँ मैं?”…

लेकिन पता नहीं किस मिटटी का बना है कम्बख्तमारा कि एक बार इस स्साले कलमाड़ी की कलम अड़ी तो ऐसी अड़ी कि बस पूछो मत…लाख मिन्नतों के बाद भी दिल नहीं पसीजा पट्ठे का”…

“ओह!…

“वो कहते हैं ना कि भैंस के आगे बीन बजाने से पार नहीं पड़ता”…

“जी!…

“बिलकुल वही हुआ मेरे साथ….मैंने कई मर्तबा उसके आगे बीन बजा ..उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित भी करने की कोशिश की लेकिन बुरा हो उन स्साले…कम्बख्त्मारे भाड़े के बाऊंसरों का…धक्के मार…परे धकेल दिया मुझे…मिलने तक नहीं दिया”मेरा मायूस स्वर…

“ओह!…

“स्साला!….पत्थर का बना है…पत्थर का…मेरी लाख गुजारिशों के बाद भी दिल नहीं पसीजा पट्ठे का…सारे के सारे ठेके अपने हिमायतियों को बाँट दिए रेवड़ियों की माफिक”…

शर्मा जी दिमाग लड़ा…निष्कर्ष पे पहुँचते हुए बोले…

“जी!…इस ससुरे लोकराज में जो हो जाए…थोड़ा है”…

“जी…

“जिन स्सालों को तमीज नहीं है नाक पोंछने की भी…उनको फर्जी दस्तावेजों के बल पर बड़े-बड़े ठेके हज़म करने के लिए दे दिए गए”…

“ओह!…

’और कुछ नहीं तो कम से कम कन्डोम सप्लाई का ठेका ही मुझे दिलवा दो’ तो पता है क्या कहने लगे?”..

“क्या कहने लगे?”…

‘कभी रेड लाईट एरिया में गए हो?’…

’नहीं’..

“ऐय्याशी का कोई तजुर्बा या साल दो साल का एक्सपीरियंस?”…

‘नहीं’…

‘फिर तुम क्या ख़ाक कन्डोम सप्लाई करोगे?’…

“ओह!…ये तो वही बात हुई कि…मुर्दे के कफ़न सप्लाई करने से पहले खुद का मरना ज़रुरी है”…

“जी!…

“वैसे बुरा ना मानें तो एक बात कहूँ?”…

“जी!…ज़रूर”..

“मेरी राय में तो आपको एक-दो बार वहाँ जा के सब कुछ देख-दाख के आना चाहिए”..

“क्या मतलब?”…

“उस बार नहीं तो इस बार सही”…

“क्या मतलब?”..

“सुना है कि इस बार विश्व एड्स दिवस के अवसर पर पूरी 80,000 कन्डोम वैंडिंग मशीनें लगने वाली हैं हमारे पूरे देश में”…

“क्या बात कर रहे हो?”मेरा उत्साहित स्वर…

“सही कह रहा हूँ…ये देखो…अखबार में भी खबर छपी है इस बारे में”शर्मा जी अपने झोले से अखबार निकाल मुझे दिखाते हुए बोले..

“अरे!…हाँ…ये तो सच में ही…(मैं किलकारी मार लगभग उछलता हुआ बोला)…

“और नहीं तो क्या मैं ऐसे ही झूठ बोल रहा था?”…

“थैंक्यू…शर्मा जी…थैंक्यू…आपका बहुत-बहुत धन्यवाद”…

“अरे!…इसमें धन्यवाद की बात क्या है?…दोस्त ही दोस्त के काम आता है”…

“जी!…मैं आपका ये एहसान जिन्दगी भर नहीं भूलूँगा…वैसे…जिन्दगी अब रहेगी कहाँ?”…

“क्या मतलब?”…

“मैं मरने जा रहा हूँ”…

“क्क्या?…क्या कह रहे हो?”…

“हाँ!…कफ़न सप्लाई करने हैं ना…इसलिए मरना तो पड़ेगा ही”…

“ओह!…अच्छा….अब समझा”…

हा…हा…हा…हा(ठहाका लगा…हँसते हुए हम दोनों का मिलाजुला स्वर)

***राजीव तनेजा***

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