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गज़ब भयो रामा…ज़ुलम भयो रे

हंसी ठट्ठा
हंसी ठट्ठा
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“ओ…बड़े दिनों में….खुशी का दिन आया….

ओ…बड़े दिनों में…खुशी का दिन आया….

आज मुझे कोई ना रोके…

बतलाऊँ कैसे कि मैँने क्या पाया….

ओ …बड़े दिनों में…..

“याहू!….वो मारा पापड़ वाले ने”…

“क्या?…क्या कह रहे हैं तनेजा जी?… उस…स्साले…पापड़बाज़ की इतनी हिम्मत?…बताइए..कहाँ पर है वो?…नाम क्या है उसका?…स्साले के दांत तोड़ के हाथ में ना धर दिए तो मेरा भी नाम…

“छोड़िये शर्मा जी…नाम में क्या धरा है?”…

“जी!…ये बात तो है…नाम में क्या धरा है? लेकिन उस स्साले…हरामखोर की इतनी हिम्मत कि मेरे दोस्त को मारे?…मारता चला जाए?…छोडूंगा नहीं उस स्साले…हरामखोर को…समझता क्या है अपने आपको?…पता बताइए आप मुझे उसका…मार-मार के स्साले के दांत खट्टे ना कर दिए तो मेरा भी नाम….इमरती लाल शर्मा नहीं”….

“छोड़िये!…शर्मा जी…नाम में क्या रखा है?”…

“जी!…ये बात तो है…नाम में क्या रखा है? लेकिन उस स्साले…हरामखोर की इतनी हिम्मत?…आप पता तो बताइए मुझे उसका”शर्मा जी अपनी आस्तीन ऊपर कर नरम से तेज स्वर की और अग्रसर होते हुए बोले….

“अरे!…शर्मा जी…ऐसी बात नहीं है…दरअसल मुझे खुशी ही इतनी मिली है कि….

“मन में ना समाए….पलक बन्द कर लूँ …कहीं छलक ही ना जाए?”…

“जी!..बिलकुल”…

“तो फिर ऐसे में इस कदर बल्लियों पे उछलने की ज़रूरत क्या है?…हटिये….दूर हटिये…टूट जाएंगी”…

“तो टूटने दीजिए ना…कौन सा अपने बाप की हैं?”…

“लेकिन मेरे बाप की तो हैं ना…हटिये..…दूर हटिये”…

“क्या शर्मा जी?…आप भी …मैं तो आपको अपने साथ हुए साक्षात  चमत्कार के बारे में बताने की कोशिश कर रहा हूँ और आप हैं कि ज़रा सी बल्लियों का रोना ले के बैठ गए हैं”…

“ज़रा सी?…ये आपको ज़रा सी बल्लियाँ दिख रही हैं?…गिन के देख लें…पूरी बाईस हैं”…

“ओफ्फो!…शर्मा जी…पहली बात तो ये कि…ये किसी आँडू-बांडु की नहीं बल्कि आपकी अपनी…खुद की  बल्लियाँ हैं….इसलिए…इतनी आसानी से टूटेंगी नहीं और फिर…भगवान ना करे  अगर गलती से दस-बीस टूट भी गई तो कौन सा आपने मुझे यहाँ से साबुत जाने देना है?”…

“हाँ!…ये बात तो है”शर्मा जी अपनी मूछों को ताव देते हुए बोले…

”जी!…

“तो ठीक है…फिर चलो…ऐसे ही कूदते-फांदते..आराम से बताओ कि क्या चमत्कार देख के आ रहे हो?”…

“दरअसल!…हुआ यूँ कि साक्षात ऊपरवाले ने मुझे अपने हाथों से गिफ्ट….

“ओह!…तो क्या आज फिर किसी लड़की ने लिफ्ट?”शर्मा जी का चिंतित स्वर….

“तौबा…तौबा…शर्मा जी…कैसी बातें कर रहे हैं आप भी?…मैं एक बार धोखा खा सकता हूँ…दो बार धोखा खा सकता हूँ लेकिन सौ बार थोड़े ही कोई मुझे उल्लू बना..मुझसे पैसे ऐंठ सकता है?”….

“तो फिर बताओ ना यार कि आखिर..हुआ क्या?”शर्मा जी का उकताहट भरा उत्सुक स्वर…

“एक मिनट!…पहले ज़रा मैं अपनी इन उखडती साँसों को दुरस्त तो कर लूँ”मैं बल्लियों से उतर ..साईड पे आ मैं बैठता हुआ बोला

“क्यों?…क्या हुआ?….हो गया चाव पूरा?”शर्मा जी ताना सा मारने के अंदाज़ में हँसते हुए बोले…

“जी!…इट्स ए क्वाईट टायरेबल जॉब…काफी थकान भरा काम है ये”…

“और नहीं तो क्या तुम इसे बच्चों का खेल समझ बैठे थे?”शर्मा जी भी वहीँ पास ही ज़मीन पे पलाथी मार बैठते हुए बोले…

“जी!…मेरे हिसाब से तो….

“चलो!…छोड़ो इस बेफालतू के हिसाब-किताब को और सीधे-सीधे  बताओ कि आखिर… हुआ क्या?”…

“बस!…यूँ समझिए कि ऐसा कमाल हुआ…ऐसा धमाल हुआ कि… धोती फटी और उसका रुमाल हो गया”…

“अरे!…वाह ये तो सच में बड़ा ही कमाल हो गया”…

“जी!…बिलकुल”…

“पहनी किसने थी?”…

“मेरी मम्मी ने”…

“म्म….मम्मी ने?”…

“दिमाग खराब हो गया है आपका”…

“क्या मतलब?”…

“चमत्कार किसके साथ हुआ था?”…

“आपके साथ”…

“तो इसमें मेरी मम्मी कहाँ से आ गई?”…

“मुझे क्या पता?…आप खुद ही तो अभी कह रहे थे कि…

“जब आप जैसे पढ़े-लिखे और समझदार लोग ऐसे बचकाने सवाल करेंगे तो मैं भी तो ऐसे ही फ़ालतू जवाब दूँगा ना?”…

“ओह!…तो इसका  मतलब धोती आपने पहनी थी?”…

“जी!…बिलकुल”…

“आप धोती पहनते हैं?”शर्मा जी ऊपर से नीचे तक मुझे हैरत भरी निगाह से देखते हुए बोले…

समझदारी के कीड़े ने डंक मारा और…

“और आप चारों खाने चित्त?”…

“इत्ता कमजोर भी नहीं हूँ मैं”…

“तो फिर?”…

“ये तो बस…ऐसे ही…खुशी के मारे मूड बन गया”…

“आपको डंक मरवाने से खुशी मिलती है?”…

“आमतौर पर तो नहीं लेकिन आज उस कमबख्त ने ऐसी जगह डंक मारा कि….

“ओ.के-ओ.के….ये तो बड़ी खुशी की बात है लेकिन ऐसे?…अचानक….इसका रुमाल कैसे हो गया?”शर्मा जी मेरी फटी हुई धोती की तरफ इशारा करते हुए बोले….

“ओह!…

“तो दरअसल हुआ यूँ कि…..

शर्मा जी धोती के कपड़े को हाथ में ले गुस्से से बौखलाते हुए बोले…

क्यों?…क्या हुआ?”…

“क्या हुआ?….ये…ये तुम मुझ से पूछ रहे हो?शर्मा जी मुझे हिकारत भरी नज़र से देखते हुए बोले

“अ…आप कहना क्या चाहते हैं?….मैं कुछ समझा नहीं”…

“ऐसी…बाबा आदम के ज़माने की घिसी हुई पुरानी धोती पहनोगे तो वो तो फटेगी ही…इसमें कमाल की क्या बात है?”…

“अरे!…नहीं…ये बात नहीं है….दरअसल हुआ यूँ कि….मैँ अपने  नए स्कूटर पे…

Electric_Bike

“अरे वाह!…नया स्कूटर?…..कब लिया?”शर्मा जी चौंकने वाले अन्दाज़ में बोले…

“जी!…बस…यही कोई दो-चार दिन पहले ही…..

“अमाँ यार!…तुम तो बड़े ही छुपे रुस्तम निकले..किसी को कानों कान खबर भी नहीं होने दी और झट से मार लिया मैदान”…

“अब क्या कहूँ शर्मा जी?..आप तो मेरा नेचर जानते ही हैँ”मैँ मन ही मन फूल के कुप्पा होता हुआ बोला

“फिर तो भय्यी!….पार्टी बनती है हमारी”…

“हाँ-हाँ…क्यों नहीं?…आप ही का दिया सब कुछ है…जब चाहें…ले लें”…

“ना…तनेजा जी…ना….पार्टी से बचने का ये तरीका तो बरसों पुराना हो गया…मेरे सामने आपका ये टोटका नहीं चलने वाला…सीधे-सीधे निकालिए सौ का पत्ता और बन्ने खाँ की दुकान से गर्मागर्म जलेबी मँगवाईए”…

“हाँ-हाँ …क्यों नहीं”…

“एक मिनट!….(स्कूटर को घूर के देखते हुए)

“ओए तनेजा!….

“जी!…शर्मा जी”….

“छोड़!…..ये पार्टी-शार्टी का चक्कर तू रहने ही दे”….

“रहने दूँ?”..

“हाँ!..रहने दे…क्यों बेकार में सौ-दो सौ फूंक के…

“कमाल करते हो शर्मा जी!…आपकी एक आवाज़ पे मैँने अपनी जेब के अन्दर हाथ डाल दिया और आप हैँ कि….

“तो दूसरी आवाज़ पे उसणे बाहर काढ ले…के दिक्कत सै?”…

“ना..दिक्कत तो कोई नहीं है जी…लेकिन….

“लेकिन क्या?”…

“यही बात अगर मैं खुद अपने मुंह से कह देता तो आपने किसी भी कीमत पे नहीं मानना था…और अब अगर आप इसे कह रहे हैं तो मैं भला इसे कैसे मान लूँ?…पार्टी तो आपको लेनी ही पड़ेगी…हर हाल में लेनी पड़ेगी”…

“अरे!…वाह…ये भी कोई ज़बरदस्ती है कि पार्टी हर हाल में लेनी पड़ेगी?”…

“कुछ भी समझ लें”…

”जा नहीं लेता…कर ले तुझे जो करना है”शर्मा जी का तैश भरा स्वर…

“एक बार फिर से सोच लें शर्मा जी…बाद में सबसे ये मत कहते फिरिएगा कि राजीव ने पहले चेताया नहीं था”…

“तू एक काम  कर”…

“क्या?”…

“किसी और दिन का रख ले ये प्रोग्राम”…

“क्यों?”…

“आज मेरा मूड ठीक नहीं”…

“किसी और दिन का तो सवाल ही नहीं पैदा होता…पार्टी तो आपको आज ही बल्कि अभी लेनी पड़ेगी…हर हाल में लेनी पड़ेगी”मैं बालसुलभ हठ पे अड़ता हुआ बोला …

“समझा कर…नहीं ले सकता”शर्मा जी का मिमियाया स्वर…

“क्यों?”..

“मेरा पेट खराब है”…

“मैं गुल्ली फिट करवा देता हूँ”…

“मुझे नहीं करवानी कोई गुल्ली-शुल्ली फिट…तू बस..जा यहाँ से”…

“वो तो आपको करवानी पड़ेगी”…

“कोई जबर्दस्ती है?”…

“बिलकुल है”…

“पागल हो गया है क्या तू?”…

“यही समझ लें”…

?…?…?…?

“शर्मा जी!…..आप मेरे बारे में अच्छी तरह से जानते हैँ कि मैँ अपने उसूलों का बड़ा पक्का आदमी हूँ”…

“तो?”…

“पहले तो कभी मैं किसी को जल्दी से हाँ नहीं करता और अगर गलती से कभी किसी को हाँ कर भी दी तो फिर भूल के भी कभी ना नहीं करता”…

“ओह!…

“अब!…मर्द की ज़बान जो ठहरी….कर दी…सो कर दी….अब तो आप इसे पत्थर पे लिखी लकीर ही समझिए”…

“तो फिर झाड़ू मार ना पत्थर पे…अपने आप मिट जाएगी ससुरी….के दिक्कत सै?”…

“ना शर्मा जी!…ना….अब तो बेशक धरती इधर की उधर हो जाए….ये तनेजा…ये तनेजा तो आपको पार्टी दे कर ही रहेगा”मैँ छाती ठोक गरजदार आवाज़ में बोला…

“अरे यार!…समझा कर”….

“क्यों?…मेरा पैसा क्या आपको हज़म नहीं होगा?”….

“नहीं!…ये बात नहीं है”…

“तो फिर दिक्कत क्या है?”….

“छोड़ ना!..क्यों बेकार में सौ-दो सौ फूँकता है…बचा के रख…आड़े वक्त काम आएँगे”…

“शर्मा जी!…बात को घुमाईए मत और सीधे-सीधे बताईए कि आप पार्टी लेंगे या नहीं?”…

“जा!…कह दिया ना एक बार कि नहीं लूँगा…नहीं लूँगा…नहीं लूँगा..कर ले तुझे जो तुझे करना हो”…

“पार्टी तो आपके फरिशते भी लेंगे”मैँ आस्तीन ऊपर कर अपनी त्योरियाँ चढाता हुआ बोला…

“ठीक सै…तो फिर एक मिनट की भी देर ना कर”…

“जी”मैँ अपनी कामयाबी पे खुश होता हुआ बोला

“सीधा ऊपर जा…..तेरी ही बाट देख रहे हैँ कई दिनों से”…

“कौन?”…

“मेरे फरिशते…और कौन?”…

“अ..आप मजाक कर रहे हैं ना?”…

“और नय्यी ते के मैं तन्ने सीरियस दीक्खूं सूं?”…

“ओह!…

“जा!…छोड़ इस पार्टी-शार्टी के चक्कर ने और…खा-कमा….मौज कर”…

“ये भी क्या बात हुई कि…खा-कमा और मौज कर?…मौज मेरी किस्मत में होती तो मैं स्कूटर के बजाए ‘नैनो’ कार ना ले लेता?”…

“धुरर फिट्टे मुंह….खोत्ता जब भी मूतेगा…मोटी धार ही मूतेगा”शर्मा जी मेरे मुंह पर लानत भेजते हुए बोले …

“म्म…मैं कुछ समझा नहीं”…

माँ….&^%$#$@#$

“मोटर साईकिलों की क्या बात करते हैं शर्मा जी?…मोटर साईकिलें तो…छोडिये…जिस गली जाना नहीं…उसकी क्या बात करनी?”…

“हाँ!…क्या फायदा ऐसी बेकार की बातें कर के जिनका कोई मतलब ही नहीं…कोई औचित्य ही नहीं?”…

“आप मुझे सीधी तरह से एकदम साफ़-साफ़…क्लीयर कट शब्दों में बताइये कि आप मुझसे पार्टी लेंगे या नहीं लेंगे?”मैं अपनी आवाज़ में दृढ़ता लाता हुआ बोला…

“सुन सकेगा?…है इतनी हिम्मत तुझ में कि अपने मुंह पर अपनी ही बुराई को सुन सके?”…

“बिलकुल…वो मर्द ही क्या जो अपनी आलोचना को सुन रुआंसा हो उठे?”…

“ठीक है!…तू अगर सुनना ही चाहता है तो फिर कान खोल के ध्यान से सुन”…

“जी!….

“जो कँगला पैट्रोल तक के पैसे नहीं खर्च कर सकता…वो मुझे क्या खाक पार्टी देगा”…

“किसने कहा आपसे कि मैँ पैट्रोल के पैसे नहीं खर्च कर सकता?”मैं हडबडा कर बौखलाता हुआ बोला …

“कहना या सुनना किस से है?”…मुझे साफ-साफ दिखाई दे रहा है”….

“क्या दिखाई दे रहा है?”…

“यही कि पैसे खर्च करने की तेरी औकात नहीं है”…

“औकात पे मत जाइए शर्मा जी….कहे देता हूँ”…

“जाऊँगा!….एक नहीं सौ बार जाऊँगा…कर ले…जो तुझे करना हो”….

“शर्मा जी!…आप शायद ठीक से जानते नहीं हैँ मुझे वर्ना…ऐसी बात करने से पहले सौ बार सोचते…औकात तो मेरी इतनी है कि यहीं खड़े-खड़े मैँ आपको….

“अरे जा-जा!…तेरे जैसे छत्तीस आए और चले गए”…

“मुझे जोश मत दिलाइये शर्मा जी…कहे देता हूँ…वर्ना बाद में बहुत पछताएंगे”…

“तू अपने ससुराल वालों के दम पे कूद रहा है ना?…आने दे उनको भी मैदान ए जंग में…देखें कौन?…कैसे?…कहाँ ढेर होता है?”…

“आप जानते नहीं हैं मेरे रिश्तेदारों को”…

“अरे!…मैं तो तुझे और तेरे रिश्तेदारों को…सभी को अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम में से कौन कितने पानी में है”…

“आप मेरी सास को बार-बार बीच में क्यों ला रहे हैँ?”…

“लाऊँ नहीं तो और क्या करूँ….सिंपल सी बात जो तेरी समझ में नहीं आ रही है कि अगर औकात ना हो तो चुप बैठे रहना चाहिए”…

“औकात की बात मत कीजिये….अगर औकात नहीं होती क्या मैँ ये नवां-नकोर स्कूटर खरीद के लाता?”मैँ लगभग रुआँसा होता हुआ बोला…

“ये स्कूटर है?”…

“और नहीं तो क्या कार है?”मुझे भी ताव आ चुका था…

“पागल के बच्चे!…ध्यान से देख…ये ‘स्कूटर’ नहीं ‘स्कूटरी‘ है”…

“शर्मा जी!…आप बड़े है…बुज़ुर्ग हैँ लेकिन इसका मतलब ये नहीं हो जाता कि आप अपने से छोटॉं की भावनाओं से खिलवाड़ करें”….

“प्लीज़!…अपने होश औ हवास पे काबू रखें और जब तक…जहाँ तक सम्भव हो सके…मेरा मज़ाक ना उड़ाएँ”…

“अरे भय्यी!…किसने कहा तुमसे कि मैँ तुम्हारा मज़ाक उड़ा रहा हूँ?”…

“ये मज़ाक नहीं तो और क्या है? कि आप मेरे अच्छे भले किंग साईज़ के ‘स्कूटर’ को ‘स्कूटरी’ बता उसके साथ-साथ मुझे भी नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैँ”….

“अरे भाई!…मैँ किसी की तौहीन नहीं कर रहा हूँ और ना ही मेरा ऐसा कोई इरादा है”…

“तो आपका मतलब ये ‘स्कूटर’ नहीं है”…

“बिलकुल नहीं है”…

“तो फिर आपके हिसाब से ‘स्कूटर’ किसे कहते हैँ?”…

“‘स्कूटर’ उसे कहते हैँ जो पैट्रोल से चलता है और आपका ये छकड़ा पैट्रोल से नहीं बल्कि ‘बैट्री’ से चलता है”…

“बैट्री से चलता है तो इसका मतलब ये ‘स्कूटर’ ना हो कर ‘स्कूटरी’ हो गया?”…

“बिलकुल”…

“ऐसा आपसे किस गधे ने कहा?”….

“कहना किसने है?…मुझे खुद पता है”….

“क्या पता है?”…

“यही कि ये एक ‘स्कूटर’ नहीं बल्कि ‘स्कूटरी’ है”…

“शर्मा जी!…मेरे साथ ये दोगला …ये सौतेला व्यवहार सिर्फ इसलिए ना कि …

    ये कीमत में कम है
    सरकार इस पर सब्सिडी दे रही है
    ये शोर नहीं करता
    प्रदूषण नहीं फैलाता
    बिना किक के ही स्टार्ट हो जाता है वगैरा…वगैरा…

“ये सब मुझे नहीं पता”…

“तो फिर क्या पता है आपको?”…

“यही कि ये स्कूटर नहीं है”…

?…?…?…?

“अच्छा चल…अगर तुझे मेरी बात पे विश्वास नहीं है तो राह चलते किसी भी ऐरे-गैरे को रोक के पूछ ले कि ये ‘स्कूटर’ है के ‘स्कूटरी’?”…

“शर्मा जी!…मेरा वक्त अभी इतना गया-बीता नहीं हुआ है किसी ऐरे-गैरे…नत्थू-खैरे से राय लेने की नौबत पड़ जाए मुझे”…

?…?…?…?

“वैसे…आप ये बताने की कृपा करेंगे कि किस ऐंगल  से ये आपको ‘स्कूटरी’ दिखाई दे रही है?”…

“तो तुझे ही ये कौन से कोण से ‘स्कूटर’ दिखाई दे रहा है?”…

“ये देखिए!…इस ऐंगल से ये बिलकुल स्कूटर जैसा दिखाई देता है”मैँ लगभग ज़मीन पे लेट उन्हें ऐंगल समझाता हुआ बोला…..

“ध्यान से देखिये कि लम्बाई…चौड़ाई और मोटाई के हिसाब से ये किसी भी ‘स्कूटर’ से कम नहीं है”…

“सिर्फ लम्बाई…चौड़ाई और मोटाई से क्या होता है?”…

“बहुत कुछ होता है…अगर लुक्स ही बढ़िया नहीं हैं तो…

“छोड़…इस बेकार की बहस को…वैसे भी क्या फर्क पड़ता है?…’स्कूटर’ हो या ‘स्कूटरी’…ढोना हमें इसने भी है और उसने भी है”…

“अरे वाह!…फर्क क्यों नहीं पड़ता…ज़मीन और आसमान का फर्क पड़ता है”…

“क्या फर्क पड़ता है?”…

“अगर मैं आपको मर्द के बजाए औरत कह कर पुकारूँ तो आपको बुरा लगेगा या नहीं?”…

“बिलकुल लगेगा”…

“इसीलिए मुझे भी लग रहा है”…

“मैं कुछ समझा नहीं”…

“आप मेरे जवाँ मर्द स्कूटर को ज़बर्दस्ती ‘स्कूटरी’ कह…स्त्री साबित करने पर तुले हैँ तो मेरा बुरा मानना जायज़ ही तो है”…

“लेकिन स्कूटर और स्कूटरी की बहस के बीच में ये मर्द और औरत कैसे आ गए?”…

“वो ऐसे कि…स्कूटर मर्द होता है और स्कूटरी स्त्री”…

“क्या मतलब?”…

“मतलब ये कि ‘स्कूटर’ चलता है…इसलिए वो मर्द है”…

“और ‘स्कूटरी’ चलती है…इसलिए वो औरत हो गई?”…

“बिलकुल”…

“वाह!…क्या लॉजिक है”…

“तुम्हारा मतलब मोटर साईकिल और कार दोनों चलती है तो इसका मतलब ये दोनों स्त्रियों की श्रेणी में आएँगी?”…

“यकीनन”…

और ऑटो मर्द की श्रेणी में?”…

“जी!…बिलकुल सही पहचाना आपने”…

“जैसे ‘बस’ चलती है और ‘ट्रक’ चलता है?”…

“बिलकुल”…

“इसका मतलब तो रेलगाड़ी औरत है और हवाई जहाज़ मर्द”…

“ऑफकोर्स”….

“हम्म!…लेकिन एक कंफ्यूज़न है”…

“क्या?”…

“यही कि ‘बुलेट’ तो सबसे शक्तिशाली बाईक है ना?”…

“जी!….

“तो वो तो मर्द ही कहलाएगी ना?”….

“जी नहीं…‘बुलेट’ भी स्त्री ही कहलाएगी”…

“लेकिन वो तो सबसे शक्तिशाली….

“ऐसे तो ‘हिडिम्बा’ भी बहुत शक्तिशाली थी…लेकिन वो राक्षसी थी…राक्षस नहीं”…

“लेकिन इसकी निर्माता कम्पनी खुद अपने प्रचार में कहती है कि जब ‘बुलेट’ चले तो दुनिया रास्ता दे”…

“यही तो यहाँ की रीत है”…

“क्या मतलब?”….

“इसे कहते हैँ अपनी परंपराओं से जुड़े रहना”…

“?…?…?….?”…

“?…?…?….?”… “?…?…?….?”… “?…?…?….?”…

“हम महान भारत देश के वासी हैँ…हमारे यहाँ सदियों से स्त्रियों का सम्मान किया जाता रहा है…अभी भी किया जाता है और हमेशा किया जाता रहेगा”…

“जी!…ये बात तो है”…

“तो अब आपकी तसल्ली हो गई ना कि….

“हाँ भय्यी…हो गई…पूरी तसल्ली हो गई कि ये ‘स्कूटरी’ नहीं बल्कि ‘स्कूटर’ है”…

“जी!…

“लेकिन स्पीड?…..स्पीड का क्या?…वो तो इसकी बहुत ही कम….

“जी!…बस…यही कोई 20 से 25 किलोमीटर प्रति घंटे की है”मेरा मायूस स्वर…

“हम्म!…यही इसकी सबसे बड़ी कमी है”…

“हाँ!….लेकिन अगर आप रफ्तार से समझौता कर सकते हैँ तो बाकी सब चीज़ों में इसका कोई सानी नहीं”…

“हम्म!….

“अरे!…हाँ…शर्मा जी..स्पीड से याद आया कि वो कमाल…वो चमत्कार तो स्पीड को लेकर ही था”…

“तो क्या तुम्हारी ये स्कूटरी…ऊप्स…सॉरी स्कूटर…25 से ज्यादा की स्पीड पे दौड़ पड़ा?”शर्मा जी का व्यंग्यात्मक स्वर….

“आप तो अंतर्यामी हैं प्रभु…आपको कैसे पता चला?”…

“कमाल करते हो तुम भी भी…अंतर्यामी भी कह रहे हो और प्रभु भी …फिर ऐसे बचकाने सवाल भी कर रहे हो”शर्मा जी मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोले…

“हें…हें…हें..शर्मा जी…मज़ाक छोड़िए और सीरियसली बताईए ना कि आपको कैसे पता चला?”….

“अरे यार!…अभी तुमने ही तो कहा”…

“तो?”…

“भय्यी!…तुम स्पीड के साथ चमत्कार की बात कर रहे थे तो मैँने अन्दाज़ा लगाया कि ज़रूर इसी की गति तेज़ हो गई होगी…तभी तुम इतना उछल रहे हो”…..

“जी…बिलकुल सही अन्दाज़ा लगाया आपने”…

“अब मुझे शुरू से…वर्ड टू वर्ड बताओ कि कैसे ये चमत्कार घटित हुआ?”…

“अब क्या चमत्कार हुआ?…ये तो मैँने आपको बता दिया लेकिन कैसे चमत्कार हुआ?…इस रहस्य से तो मैँ भी बिलकुल अनजान हूँ”…

“ठीक है!…आगे बोलो”…

“दरअसल!…हुआ क्या कि दूसरों कि देखा-देखी…खुशी-खुशी से चाव-चाव में मैँने इसे ले तो लिया लेकिन फिर इसकी मरियल स्पीड देख के जल्द ही दुखी हो परेशान भी हो गया”…

“ओह!…फिर?”…

“शर्मा जी!…मेरा दिल ही जानता है कि पिछले दो दिनों में इसकी स्पीड को तेज़ करने के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए मैँने?”…

“ओह!…

“मन्दिर…मस्जिद और गुरूद्वारे से लेकर चर्च तक मैँ कहाँ-कहाँ नहीं भटका?…

“हम्म!….

“कोई मकैनिक…कोई कारीगर…कोई वर्कशाप नहीं छोड़ी मैँने लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात”…

“क्या मतलब?”…

“सारे क्रिया-क्रम फेल हो गए..

“ओह!…

“दुखी हो कई बार इतना गुस्सा आया कि इसे ले जा के सीधा शो-रूम वाले के वहीं पटक आऊँ कि ले!…सम्भाल अपना टीन-टब्बर”….

“हम्म!…

“एक-दो बार तो बड़े उलटे-उलटे ख्यालात दिल में उमड़ने लगे कि… इसे दियासलाई की आंच दिखा इसके साथ मैँ खुद भी सती हो जाऊँ ताकि…ना रहे बाँस और ना ही बजे इसकी बाँसुरी”…

“शांत!…राजीव…शांत….आवेश में आने से कुछ नहीं होगा”…

“कमाल करते हैँ शर्मा जी आप भी…जिस संग बीतती है ना..वहीं जानता है…आपका क्या है?…आप ठहरे मस्तमौला इनसान”…

“हम्म!..

“कई बार दिल में ख्याल आया कि किसी अँन्धे कुएँ में छलांग मार इसके साथ-साथ मैं खुद भी अपनी जान दे दूँ”…

“राजीव!…जैसे हर जोड़ का कोई ना कोई तोड़ अवश्य होता है…ठीक वैसे ही इस समस्या का भी कोई ना कोई हल ज़रूर होगा”…

“लेकिन….

“पागल मत बनो…आत्महत्या जैसी कायराना हरकत तुम जैसे पढ़े-लिखे इनसान को शोभा नहीं देती…कुछ और सोचो…कोई तो हल निकलेगा इस तकलीफ का”…

“जी!…

“अच्छा!…फिर क्या हुआ?”…

“कई बार सोचा कि अच्छे-भले…शरीफ और नेक नीयत इनसान को बरगलाने….फुसलाने और भरमाने का केस कम्पनी वालों के खिलाफ डाल दूँ”…

“गुड!…ये बहुत अच्छा सोचा तुमने….

“फिर सोचा कि लगे हाथ मानहानि का केस भी डाल दूँ”…

“ये तो सोने पे सुहागे वाली बात हो गई…वकील ने तो तब भी लेने हैँ और तब भी लेने हैँ”…

“जी!…मैँने सोचा कि जब एक साथ दो-दो कैसों का सामना करेगा…तब पता चलेगा बच्चू को”….

“अब…ये बच्चू कौन?”…

“अरे!…वही…शो-रूम का मैनेजर…’बच्चू सिंह यादव’ और कौन?…बड़ा दावा ठोक के कहता फिरता था कि…

“पूरे 120 किलो वज़न झेल सकता है जी..हमारा स्कूटर”…

“माँ दा सरsss.. झेल सकदा ए…पूरे 120 किलो”….

“अरे!…झेल तो मैँ रहा हूँ इसे पिछले चार दिनों से”….

“तो क्या 120 किलो वज़न भी?….सो सैड ना?”….

“शर्मा जी!…आप तो जानते ही हैँ कि मेरा वज़न पूरे 100 किलो है…ना एक ग्राम ज़्यादा..ना एक ग्राम कम”…

“जी!…पिछले हफ्ते ही तो बताया था आपने”…

“तो मैँने सोचा कि जब कम्पनी वाले 120 किलो बता रहे हैँ तो 25-30 किलो अगर ज़्यादा भी हो गया तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला”…

“जी!…ये ट्रक-टैम्पो और रिक्शा वाले भी तो ओवरलोडिंग करते ही हैँ आखिर”…

“जी!…और मैँ कौन सा उस मुटल्ली को रोज़-रोज़ लिफ्ट देने वाला था?”…

“तो?”…

“तो क्या?…बेइज़्ज़ती करवा दी पट्ठे ने….बीच सड़क के ही टैं बोल गया”…

“ओह!…ये तो बड़ी इंसल्ट वाली बात हो गई”…

“और नहीं तो क्या?…मेरा सर तो शर्म के मारे ऐसा नीचा हुआ कि बस पूछिए मत”…

“हम्म!…फिर क्या हुआ?”…

“फिर मैँने सोचा कि इम्पोर्टेड टैक्नोलॉजी है…..इसका मतलब वज़न एकदम ऐकूरेट और परफैक्ट होना चाहिए…ना एक ग्राम कम…ना एक ग्राम ज़्यादा”…

“हम्म!……

“जैसा कि आप जानते हैँ कि मेरा वज़न ….

“पूरे 100 किलो है”…

“जी!….

“तो?”…

“तो मैँने सोचा कि जब फालतू वज़न नहीं लाद सकते तो कम भी क्यों लादा जाए?”…

“बिलकुल!…उसूल तो उसूल है”…

“जी!…

“अच्छा!…फिर?”…

“फिर क्या?…मैँने सड़क से तीन-चार ईंटे उठाई और उन्हें पिछली सीट पे लाद चल पड़ा अपने काम की तरफ”…

“ठीक किया आपने”…

“अजी!…क्या खाक ठीक किया?”..

“क्यों?…क्या हुआ?”…

“ईंटों को बाँधना तो मैँ भूल ही गया था”…

“ओह!…फिर क्या हुआ?”…

“कोई यहाँ गिरी…कोई वहाँ गिरी”…

“ओह!…फिर तो इधर-उधर बिखरी हुई ईंटों को इकट्ठा करने में बड़ी  मुश्किल हुई होगी?”…

“मुश्किल?…इन स्साली…नामुराद ईंटों को सम्भालने के चक्कर में तो मैँ खुद तीन बार ठुकते-ठुकते बचा”…

“ओह!….फिर?”…

“फिर क्या?…ईंटो का आईडिया ड्राप कर मैँने कबाड़ी से 20 किलो का बाट खरीदा और उसे आज़माया”…

“गुड!…ये अच्छा किया आपने”…

“अजी!..क्या खाक अच्छा किया?…अच्छा तो तब होता जब मेरी ये मेहनत…मेरी ये मशक्कत रंग लाती”….

“तो क्या….

“जी!…इतनी मेहनत…इतनी पल्लेदारी के बाद भी नतीजा वही…एकदम सिफर का सिफर”….

“हम्म!..फिर क्या हुआ?”शर्मा जी के स्वर में उत्सुकता का पुट जाग चुका था

“मैँने खूब दिमाग लगा के नए–पुराने ..सभी तरह के जुगाड़ आज़माए लेकिन किस्मत ही अगर खराब हो तो कोई क्या कर सकता है?”…

“आखिर!…हुआ क्या?”…

“होना क्या था?…मेरी हर तरकीब…मेरा हर जुगाड़ फेल होता जा रहा था और मैं चुपचाप …असहाय सा खड़ा कुछ भी नहीं कर पा रहा था”…

“हम्म!…

“कैसे इसकी स्पीड को तेज करूँ?”…

“मैँ इसी उधेड़बुन में डूबा…परेशान हो कुछ सोच ही रहा था कि अचानक ख्याल आया कि पिछले दिनों शादियों का सीज़न था”…

“तो?”…

“आप तो जानते ही हैँ कि शादियों और पार्टियों में फाल्तू का कितना खाना-पीना हो जाता है?”…

“जी!…ये मुझसे बेहतर और भला कौन जानेगा”शर्मा जी अपनी फूली हुई तोंद की तरफ इशारा करते हुए बोले….

“जी!…

“फिर क्या हुआ?”…

“मैँ कॉपी-पैन और कैल्कूलेटर ले के हिसाब लगाने में जुट गया कि कहीं इन शादियों और पार्टियों के चक्कर में मेरा वज़न….

“ओह!…

“वही हुआ…जिसका मुझे डर था”…

“यू मीन!…आपका वज़न?”…

“जी!…मेरा वज़न पूरे 4 किलो बढकर मुझे वॉलीबॉल से फुटबॉल में तब्दील कर चुका था”…

“यू मीन!….आप 100 किलो से बढ़कर पूरे 104 किलो के हो चुके थे?”….

“जी!…

“ओह!…वैरी क्रिटिकल सिचुएशन”…

“जी!…

“फिर क्या हुआ?”…

“होना क्या था?…मैँने भी दिमाग लड़ाया और इसका भी हल ढूँढ निकाला”…

“वज़न कम करने का?”…

“कुछ-कुछ”…

“वो कैसे?”…

“मैँने सोचा कि अब ये डायटिंग-शायटिंग करना तो अपने बस का है नहीं…तो किसी ना किसी जुगाड़ से ही काम लेना होगा”…

“अच्छा फिर?”..

“मैँने महसूस किया कि मेरे जूते ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही भारी थे”…

“तो?”…

“उन्हीं को उतार मैं नंगे पाँव ही चल दिया अपने गोदाम की तरफ”…

“पैदल?”…

“अच्छे-भले स्कूटर के होते हुए मैँ भला पैदल क्यों चलने लगा?”…

“हम्म!…

“और वैसे भी मुझे स्कूटर की स्पीड बढानी थी…ना कि अपनी”…

“तो क्या स्पीड में कुछ इज़ाफा हुआ?”…

“इज़ाफा तो नहीं लेकिन हाँ…मेरे पैरों में तीन-चार छाले और पाँच-छह…छोटे-बड़े कंकड़ ज़रूर चुभ गए”…

“ओह!…

“जब मैँने देखा कि जूते उतारने से भी कुछ फर्क नहीं पड़ा तो मैँने दिलेरी से काम लेते हुए एक अनोखा प्लैन बनाया”…

“तो क्या आपने कपड़े….

“आप तो अंतर्यामी हैं प्रभु…आपने कैसे जान लिया?”…

“कमाल है!…खुद ही अंतर्यामी भी कहते हो और प्रभु भी और फिर ऐसे बचकाने प्रश्न भी पूछते हो”…

“हें…हें…हें….आप भी ना शर्मा जी…बात को कहाँ से कहाँ घुमा के ले जाते हैं?”…

“अच्छा!…फिर क्या हुआ?…क्या दिन में ही…

“छी-छी….शर्मा जी…कैसी निर्लज्जता भरी बातें करते हैं आप भी?….क्या मैँ इतना बेशर्म हो सकता हूँ कि अपनी इज़्ज़त-आबरू की परवाह किए बिना दिन में ही?”…

“तो क्या फिर रात में?”…

“शर्मा जी!…यू ऑर जीनियस…सही पहचाना आपने”…

“तो फिर कितने बजे?”…

“यही कोई दो या सवा दो का वक्त था….सुहानी…चाँदनी रात थी….मस्त हवा मंद-मंद बह रही थी…ऐसे में मैँने अपने सब कपड़े उतारे और…..

“हाय राम!…तो क्या कुछ भी नहीं?”…

“शर्मा जी!…क्या आपने मुझे इतना निर्लज्ज…बेशर्म और बेहय्या समझ रखा है कि…मैँ बिना कुछ पहने ही रात-बेरात सड़कों पे उछल-कूद मचाता फिरूँ?”..

“तो क्या?”…

“जी!…सही पहचाना आपने…मैँने V.I.P की लाल रंग की छोटी वाली फ्रैंची पहनी हुई थी…ये देखिए…अभी भी पहनी हुई है”…

“अरे!…हाँ…ये तो सच में लाल ही है”शर्मा जी कौतुहल से उछल कर ताली बजाते हुए बोले

“अच्छा फिर?”…

“फिर क्या?…लेना एक ना देना दो….स्साले….बीच रस्ते में मेरा रस्ता रोक के खड़े हो गए”…

“कौन?…पुलिस वाले?”…

“अरे!…अगर पुलिस वाले होते तो मैँ कुछ ले-दे के उनसे सुलट भी लेता”…

“तो फिर कौन?”…

“शर्मा जी!…एक राज़ की बात बताऊँ?”मैं शर्मा जी के कान में फुसफुसाता हुआ बोला…

“जी!…ज़रूर बताईए…एक क्या?…दो बताईए”…

“किसी से कहिएगा नहीं”…

“सवाल ही नहीं पैदा होता…आप बेधड़क और बेचिंत हो के बताईए”…

“उस वक्त मेरे पास उस लाल रंग की फ्रैंची के अलावा और कुछ भी नहीं था”…

“ही…ही…ही…ही”…

“हम्म!…

“ये तो लाख-लाख शुक्र है ऊपरवाले का कि उस रात मुझे पुलिस वाले नहीं मिले…नहीं तो मैं किसी को मुंह दिखाने के लायक ताक नहीं रहता”…

“हम्म!…अब तो बच के रहना पड़ेगा इन सबसे…हाई कोर्ट ने जो आथोराईज़ कर दिया है ये सब”…

“जी!…इसी बात का तो डर था मुझे लेकिन वो कह्ते हैँ ना कि “जाको राखे साईयाँ…मार सके ना कोय”…

“जी!…आपने बताया नहीं कि उस रात आपका रस्ता रोक के कौन कम्बख्त खड़ा हो गया था”…

“अपनी भूल सुधारिए जनाब और…’रस्ता रोक के खड़ा हो गया था’ के बजाय ‘रस्ता रोक के खड़े हो गए थे’..कहिए”…

“तो क्या…कई सारे थे?”…

“जी!…पूरे पाँच मुस्टंडों के तांडव को झेला था मैंने…पूरे पाँच मुस्टंडों के तांडव को”….

“यही तो सबसे कमी है हमारे शहर की…गुण्डे रात भर मज़े से मटरगश्ती करते फिरते हैँ और पुलिस मज़े से अपने दड़बे में बेफिक्र हो सोई रहती है”शर्मा जी गुस्से से आवेशित हो हाँफते हुए बोले…

“अजी गुण्डे कहाँ?….वो तो…..

“ओह!..तो क्या कोई गैंगस्टर वगैरा?”…

“अजी!…कहाँ?….गैंगस्टर वगैरा तो सब..अपनी-अपनी नौकरानियों से ब्लात्कार करने के जुर्म में जेल की सलाखों के पीछे सड़ने के बाद भीगी बिल्ली बन…इधर-उधर दुबके पड़े हैं”…

“कमाल है!…पुलिस भी नहीं…गुण्डे-मवाली भी नहीं…यहाँ तक की गैंगस्टर वगैरा भी नहीं….तो फिर ऐसी कौन सी आफत आ गई हमारे शहर में?”…

“स्सालों ने!…भौंक-भौक के मेरा सड़क पे चलना हराम कर दिया था”…

“ओह!….माय गाड…फिर क्या हुआ?”….

“फिर क्या?…उनके डर के मारे…ये आईडिया भी ड्राप करना पड़ा”…

“हम्म!..फिर क्या हुआ?”…

“हर तरफ से निराश होने के बाद मैँने उस ऊपरवाले..परवरदिगार का हाथ थामा कि…

“हे पालनहार!…अब तू ही मेरी मदद कर….मुझे बचा….मेरी डूबती नैय्या को पार लगा”…

“तो?”…

“तो क्या?….भगवान ने मेरा रुदन…मेरा क्रंदन…मेरी आह…मेरी पुकार सुन ली और चमत्कार दिखा दिया”…

“तो क्या स्पीड?”….

“जी!..बिलकुल”…

“मुझे विश्वास नहीं हो रहा”…

“अरे!…हाथ कँगन को आरसी क्या? और पढे लिखे को फारसी क्या?… आप खुद ही चला के देख लें”…

“अरे यार!..मुझे कहाँ आता है ये स्कूटर-शकूटर चलाना?”…

“तो फिर सीख लो”…

“इस उम्र में?”…

“क्या दिक्कत है?”..

“ना…बाबा ना….मेरा इरादा अपनी हड्डी-पसली एक करवाने का नहीं है”…

“ओ.के…जैसी आपकी मर्जी”…

“तुम मुझे पूरी बात बताओ कि क्या हुआ और कैसे हुआ?”…

“कैसे-क्या होना है?…मैँ रोज़ाना की तरह आज भी उस रायचन्द के बच्चे को कोसता हुआ अपने काम पे जा रहा था”…

“अब ये कौन सा राय चन्द बीच में आ के टपक पड़ा?”…

“वही!…जिसने मुझे ये डिब्बा खरीदने की सलाह थी थी”…

“अच्छा!…फिर?”…

“पूरे रस्ते मैँ भगवान से प्रार्थना करता जा रहा था कि…हे भगवान…किसी तरह इस टट्टू की स्पीड बढा दे…किसी भी तरह इसकी स्पीड बढा दे”…

“पूरे इक्यावन का प्रसाद चढाऊँगा”…

“फिर?”…

“फिर क्या?…भगवान ने मुझे साक्षात दर्शन दे दिए”…

“साक्षात?”…

“जी!…बिलकुल साक्षात…फेस टू फेस दर्शन”…

“मुझे विश्वास नहीं हो रहा…पूरी बात बताओ”..

“दरअसल हुआ क्या?..कि मैँ तो मन ही मन ऊपरवाले से प्रार्थना करता हुआ जा रहा था कि इतने में देखता हूँ कि एक ‘सरदार जी’ बीच सड़क के इशारा कर मुझसे लिफ्ट माँग रहे हैं”….

“इस छकड़े पे लिफ्ट?”शर्मा जी के स्वर में हैरानी थी…

“जी!…

“विश्वास नहीं होता”….

“पहले-पहले तो मुझे भी विश्वास नहीं हुआ कि क्या कोई इतना सनकी और पागल भी हो सकता है जो इस…इस पे लिफ्ट मांगे”मैँ अपने स्कूटर की तरफ इशारा करता हुआ बोला…

“फिर?”…

“मुझे लगा कि शायद मुझे ही धोखा हो रहा है….मैँने अपनी मिचमिचाती हुई आँखों को पूरे जत्न से खोल के देखा तो पाया कि…सब सच ही था”…

“मतलब…वो सरदार जी तुम्हें ही लिफ्ट देने  के लिए इशारा कर रहे थे?”…..

“जी!…हाँ…मुझे ही”…

“अच्छा फिर?”…

“पहले तो मेरे जी में आया कि उसे कस के डांट लगा दूँ…फिर जाने क्या सोच के मैँने उसे लिफ्ट दे दी”…

“चैक करो!…कहीं कोई अंजर-पंजर तो ढीला नहीं हो गया इसका?”…

“अब तो ऊपरवाला ही मालिक है तुम्हारे इस….

“शर्मा जी!…हमेशा ऊपरवाला ही हर चीज़ का मालिक होता है…ये तो हम और आप व्यर्थ में गुमान पाल लेते हैँ कि ये मेरा है और वो मेरा है”…

“जी!…ये तो है”…

“ऊपरवाला तो जब जाहे…जिस किसी की भी छप्पर फाड़ झोली भर दे और जब चाहे किसी की भी बनी-बनाई बिलडिंगे गिरा उसे फुटपाथ पे ला दे”…

“जी!…उसका कोई मुकाबला नहीं….उसकी महिमा अपरम्पार है”…

“जी!..बिलकुल”…

“फिर क्या हुआ?”…

“मैँने ना चाहते हुए उसे लिफ्ट दे तो दी लेकिन अब मेरा दिल अन्दर ही अन्दर धुक्क-धुक्क करे कि बेटा राजीव!…तू तो गया काम से”…

“अच्छा…फिर?”…

“मैँ मन ही मन मैँ उस घड़ी को कोस रहा था जब मैँने उस सरदार के चक्कर में ब्रेक लगाए थे कि…अचानक चमत्कार हो गया”….

“तो क्या स्पीड?”…

“जी!…बिलकुल…मेरा जो स्कूटर 25 की स्पीड पर ही साँस फुला हाँफने लगता था…वो हवा से बातें कर रहा था”…

“क्या बात कर रहे हो?…ज़रूर तुम्हें धोखा हुआ होगा”…

“शर्मा जी!…धोखा एक बार हो सकता है…दो बार हो सकता है…दस बार नहीं…मैँने कम से कम दस बार अपनी इन्हीं आँखों से चैक किया….स्पीड वास्तव में 35 के पार थी”…

“अरे वाह!…फिर तो मज़े हो गए तुम्हारे”…

“अजी मज़े कहाँ?…तीव्र गति पे स्कूटर दौड़ाने के मज़े मैँ ले ही रहा था कि अचानक बीच में टांग अड़ाते हुए उस सरदार के बच्चे ने….ऊप्स सॉरी …संत-महात्मा जी ने मुझे रुकने का इशारा किया”…

“ओह!…फिर क्या हुआ?”….

“फिर क्या?…उसके जाते ही स्पीड भी टांय-टांय-फिस्स…..वापिस वही अपने पुराने ढर्रे पे”…

“याने के 25 की स्पीड पे?”…

“जी!…

“ओह!…ये तो बहुत बुरा हुआ”…

“जी!…..ज़रूर कोई पुण्य आत्मा रही होगी”…

“कोई ज़रूरी नहीं…आम इनसान भी हो सकता है”…

“लेकिन आम इनसान में इतनी ताकत कि वो…..

“तुम्हारा स्कूटर बिजली से चार्ज होता है ना?”…

“जी!…..

“और तुमने ये भी सुना होगा कि इनसानों के अन्दर भी बिजली का थोड़ा-बहुत करैंट होता है”…

“जी!…सुना क्या?…मैँने तो खुद महसूस किया है..मेरी अपनी…खुद की…सगी बीवी भी करैंट मारती है”…

“कब?”…

“जब मैँ उसकी मर्ज़ी के बिना उसके नज़दीक जाता हूँ”…

“अरे यार!…वैसे तो मेरी बीवी भी करैंट मारती है और सच कहूँ तो उसकी मारक क्षमता इतनी तेज़ है कि मैँ कई-कई हफ्ते उसके धोरे(नज़दीक) नहीं लगता”…

“क्या बात करते हैँ शर्मा जी आप भी?..हो ही नहीं सकता”….

“हो कैसे नहीं सकता जब मैं खुद बता रहा हूँ?”..

“म्म…मेरा कहने का मतलब है कि मेरी बीवी…आपकी बीवी से ज्यादा तेज करैंट मारती है?”…

“ना…बिलकुल ना…मैं नहीं मानता”…

“आपको अगर विश्वास नहीं है तो बेशक कभी भी आज़मा के देख लें”….

“पक्का?”…

“बिलकुल पक्का”…

“मुकर तो नहीं जाओगे?”…

“क्या बात कर रहे हैं शर्मा जी आप भी…मैंने आपसे पहले भी कहा था और अब भी कह रहा हूँ कि पहले पहल तो मैँ किसी को हाँ नहीं करता और अगर गलती से किसी को हाँ कर दिया तो फिर भूल के भी कभी ना नहीं करता”…

“हम्म!..तो ठीक है…तो फिर सोमवार को मिलते हैँ”…

“जी!…ज़रूर…लेकिन वो सरदार जी वाली बात तो बीच में ही रह गई”…

“अरे यार!…सिम्पल सी बात है…सरदार भी करैंट मारता होगा”….

“ओह!…

“उसी की  विद्धुतीय तरंगों की वजह से तुम्हारे स्कूटर की स्पीड बढ गई होगी”…

“हम्म!…यही हुआ होगा”…

“वैसे वो सरदार…तुम्हें मिला कहाँ था?”….

“ब्रिटेनिया के नए वाले पुल के ऊपर”….

“और तुमने उसे छोड़ा कहाँ था?”….

“छोड़ना कहाँ था?…ढलान उतरते ही उसने मुझे कहा कि…बस यही रोक दो”…

“बेवाकूफ!…ये बात पहले नहीं बता सकता था”….

“आप ही ने तो कहा था कि सारी बात सिलसिलेवार ढंग से एक-एक कर के बताऊँ”….

“हम्म!..इसीलिए तुमने अपनी बात स्कूटर से शुरू की थी?”…

“जी!..

“अच्छा!…शर्मा जी…मैं चलता हूँ….ज़रूरी काम है….कहीं देर ना हो जाए”…

“कहाँ जाना है?”…

“उसी पुल की तरफ…क्या पता फिर मुलाकात हो जाए और पुन: चमत्कार हो जाए”…

“उफ!…तौबा…

“बेवाकूफ के बच्चे!….अभी तक तेरे भेजे में बात नहीं घुसी की कि ऊँचाई से नीचे आते वक्त गाड़ी की स्पीड अपने आप तेज़ हो जाती है”…

“क्क…क्या?”…

“और नहीं तो क्या?”…

“ओह!…लेकिन वो चमत्कार…

“भाड़ में गया तू और तेरा चमत्कार…चल…भाग यहाँ से…बेकार में ही खामख्वाह मेरा टाईम खराब कर दिया”…

गज़ब भयो रामा…ज़ुलम भयो रे”कहते हुए मेरा प्रस्थान

***राजीव तनेजा***

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