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दो बूँद जिंदगी की- राजीव तनेजा

हंसी ठट्ठा
हंसी ठट्ठा
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***राजीव तनेजा***

“सुनो…अपने पड़ोस में नए किराएदार आए हैँ”….
“तो?”….
“चलो मिल आते हैँ”…
“अरे!…रोज़ाना ही तो किराएदार बदलते रहते हैँ सेठ जमनादास की इस तिमंज़िली बिल्डिंग में…किस-किस से दुआ-सलाम करते फिरें?”…
“समझा करो बाबा…पड़ोस का मामला है”…
“तो?”…
“पास-पड़ोस वालों से हमेशा बना के रखनी चाहिए”…
“वो किसलिए?”…
“अरे!….तुम तो जैसे जानते ही नहीं हो?…..अपने घर से कभी ‘आलू’ खत्म होते हैँ तो कभी ‘प्याज़’ आखरी साँसे गिन रहे होते हैँ”….
“तो खत्म होने ही क्यों देती हो?…अपना पहले से ही एडवांस में ला के रखा करो”….
“हाँ-हाँ…पहले से ही ला के रखा करूँ…जैसे तुम्हारा बाप चलती-फिरती टकसाल छोड़ गया है ना मेरे लिए”…..
“तो मुझ से माँग लिया करो”..
“हुँह!…बड़े आए माँगने पर देने वाले…दस-दस दफा चिरौरी करो..तब कहीं जा के बड़ी मुश्किल से एक बार अपने खीस्से को बाहर की हवा दिखाते हो…और वो भी तब…जब तक सौ दफा सिर ना खा लूँ तब”….
“अरे!…मुश्किल से या आसानी से…लेकिन देता तो हूँ ना?”….
“तुम्हारी तरह इनकार तो नहीं करता?”…
“मैँने कब इनकार किया?”…
“याद करो!…परसों रात जब फिल्म देख रहे थे…और तुम बीच में ही नींद का बहाना बना…चुपचाप दूसरी तरफ मुँह कर के लेट गई थी के नहीं?”….
“तो क्या रात के बारह बजे तुम्हारे लिए परांठे सेकती फिरती?”…
“क्यों?…पति को परमेश्वर मान उसकी सेवा करना तुम्हारा धर्म नहीं है?”…
“और उसकी इच्छाओं की पूर्ति करना तुम्हारा कर्तव्य नहीं है?”…
“मैँने कब ना करी है?”…
“क्यों?…ये जब मैँ किसी चीज़ की डिमांड करती हूँ तो तुम्हारी मुण्डी दूसरी तरफ क्यों घूम जाती है?”…
“तो क्या सारी तिजोरी ही तुम्हारे हवाले कर दूँ?”….
“हाँ-हाँ!…कर दो…कौन मना करता है?”…
“याद रखो!…मेरी जीते जी…ना धेला…ना पाई….कुछ भी नहीं मिलने वाला तुम्हें”…
“हाँ!…मेरे मरने के बाद बेशक सब तुम्हारा है”….
“सब पता है मुझे…बड़ी सख्त जान हो तुम…इतनी जल्दी नहीं मरने वाले”बीवी बड़बड़ाते हुए बोली…
“तो मेरे अंत समय तक इंतज़ार ही कर लो”…
“बुढापे में क्या मैँ पैसे का अचार डालूंगी?….जो देना है…अभी दे दो…तुरंत दे दो…फटाफट दे दो”….
“हाँ-हाँ!…अभी दे दूँ और खुद पाई-पाई का मोहताज हो जाऊँ?”…
“बड़े शौक से”…
“तुम तो यही चाहती हो ना कि सब कुछ तुम्हारे हवाले कर के मैँ खुद कटोरा थाम लूँ?”….
“दैट्स इट!…यही…यही तो मैँ चाहती हूँ कि तुम बुज़दिली छोड़…दिलेर बनो”…
“मतलब?”…
” मतलब कि तुम माँगना सीखो”…
“हुँह!…बड़ी आई मुझको माँगना सिखाने वाली”…
?…?…?..?..
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“जुम्मा-जुम्मा नौ दिन हुए नहीं घास चरते हुए कि चरागाहों के गुण बखारने लगी”…
“मतलब?”…
“तुम ..कल की लौंडी…मुझे?…मुझ अहले फकीर को माँगना सिखाने चली हो?…
“तो?”….
“अरे!…मुझ से बड़ा मँगता तो तुम्हें पूरे जहाँ में लाख ढूँढे से भी ना मिलेगा लेकिन कोई ढंग की चीज़ हो तो माँगी भी जाए…ये क्या?…कि मुँह उठाओ और चल दो आलू-प्याज़ माँगने”…
“तो फिर क्या माँगूँ?”…
“अपना ऊँची…ऊँचे लैवल की चीज़ माँगो”…
“तो क्या मैँ आलू-प्याज़ के बजाय लोगों से इमरती और घेवर माँगा करूँ?”…
“अरे बेवाकूफ!…ये भी कोई माँगने की चीज़ें हैँ?”…
“तो फिर चलो तुम ही बता दो कि मैँ क्या चीज़ें माँगा करूँ और क्या चीज़ें नहीं?”….
“क्या चीज़ें क्या?…अपना जो पसन्द हो वो माँग लो”…
“इसलिए तो मैँ ‘इमरती’ और ‘घेवर’ माँगने की कह रही थी…या फिर तुम कहो तो ‘गाजर पाक’ माँग लिया करूँ?”…
“ओफ्फो!…ये भी कोई माँगने की चीज़ें है?”…
“तो?”…
“अरी भागवान!…मेरा मतलब है अगर किसी से कुछ माँगना ही है तो दिल खोल के माँगो”…
“ठीक है!…तो फिर मैँ किलो-दो किलो माँग लिया करूँगी”…
“पागल हो गई हो क्या?”….
“क्या मतलब?…तुम ही तो कह रहे थे कि…
“ओफ्फो!…क्या मुसीबत है?”…
“अरे!…माँगना है तो अपना ‘सैंत्रो’ माँगो…’वैगन ऑर’ माँगो…’एम.पी थ्री प्लेयर’ माँगो…हो सके तो ‘डी.वी.डी प्लेयर’ भी  माँगो”…
“हुँह!…तुमने कह दिया  और मैँने माँग लिया”…
“क्यों?…क्या दिक्कत है?”….
“अरे!…लोगों को इतना पागल समझ रखा है क्या?..जो अपनी मँहगी चीज़ें तुम पर ऐसे ही न्योछावर कर..मुफ्त में लुटाते फिरेंगे?”…
“माना कि दुनिया वाले लाख मतलबी…निर्मोही और निर्दयी सही लेकिन अमावस के काले दिनों के बाद पूनम का चाँद भी तो निकलता है ना?”…
“मतलब?”..
“सभी तो नहीं…लेकिन कुछ एक तो किसी ना किसी दिन तरस खा कर हमारे झाँसे में ज़रूर फँस ही जाएँगे”…
“हम्म!…
“अपना ट्राई करते…करते रहो…और करते रहो”….
“जी”…
“यही हमारा फर्ज़ है…यही हमारा कर्तव्य है”…
“लेकिन….
“कोई लेकिन-वेकिन और किंतु-परंतु नहीं….इन सब को मारो गोली और बस इतना याद रखो कि …
कभी ना कभी तो लहर आएगी…आएगी नहीं तो क्या माँ…..     &ं%$%ं#@
“क्या बक रहे हो?”…
“सॉरी!….ब्बस…ऐसे ही मुँह से निकल गया था”…
“ओह!…अगर गलती से है तो….दैन इट्स ओ.के….मैँ अपने शब्द वापिस लेती हूँ”…
“वर्ना तुम्हें पता है कि मुझे ऐसी बेहूदगी भरी भाषा बिलकुल भी पसन्द नहीं”…
जी”…
“हाँ!…तो तुम क्या कह रहे थे?”…
“कभी तो लहर आएगी…आएगी नहीं तो क्या?….
“बस-बस….क्या मतलब था तुम्हारी इस बात का?”..
“यही कि कभी ना कभी…कोई ना कोई बकरा तो ज़रूर हलाल होगा ही”…
“ओ.के”….
“चलो!…मान लो कि खुदा ना खास्ता किसी ने हम पर तरस खा के अपना ‘एम.पी.थ्री’ या ‘डी.वी.डी  प्लेयर’ हमें पकड़ा भी दिया…तो?”..
“अपना…ले के चलते बनो”…
“आय-हाय!…ऐसे-कैसे ले के चलते बनो?…अगला वापिस नहीं माँगेगा?”…
“तो दे दो”…
“क्या?”…
“गोली”…
“मतलब?”…
“ढीठ बन के मीठी गोली थमा दो अगले के हाथ में….क्या दिक्कत है?”…
“ओह!…
“बस!..आजकल-..आजकल कर के कुछ दिन टरकाते रहो…अपने आप थक हार के कुछ दिन बाद माँगना छोड़ देगा”…
“लेकिन अगर कुछ दिन बाद भी माँगना नहीं छोड़ा तो?”…
“अरे!…तब तक तो वैसे ही कचूमर निकल चुका होगा उसके ‘एम.पी.थ्री प्लेयर’ या फिर सो कॉल्ड ”डी.वी.डी प्लेयर’ का”…
“मतलब?”…
“प्ले होने लायक ही कहाँ बचा होगा?”..
“और फिर ऐसी कण्डम आईटम को ले के क्या वो उसे चूल्हे में झोंकेगा?”…
“गुड!…वैरी गुड…..अब समझी”…
“बात में तुम्हारी दम तो है”…
“खाली दम नहीं…’दस कदम’ कहिए हुज़ूर…’दस कदम’ कहिए”…
“यू मीन!…दस का दम?”…
“हाँ-हाँ!…वही”…
“ओ.के!…म्यूज़िक प्लेयर वगैरा तक तो ठीक है लेकिन ये जो तुम ‘सैंत्रो’ वगैरा माँगने की बात कर रहे हो…ये गलत है”…
“वो कैसे?”…
“इतनी बड़ी आईटम…अगर कहीं गलती से किसी दिन ठुक-ठुका गई तो?”…
“माल मालिकों का…मशहूरी कम्पनी की”…
“??…??…??…??…
“ये तो पहले से ही डैमेजड थी”..कह अपना खी…खी…खी कर के खींसे निपोर कर अपने रस्ते चलते बनो…सिम्पल”….
“ना…बाबा ना!…तुमने कह दिया…’सिम्पल’..और हो गया?”…अपने बस का नहीं है ये सब”…
“ओ.के!…तो फिर…’घाघरा’…’चोली’….’लिपिस्टिक’…’बिंदी’….यही सब माँग के पूरी ज़िन्दगी कुँए में बसी मेंढकी की तरह रह जाना”….
?…?…?…?…
“और अगर इतना भी जिगरा ना हो ना….तो किसी सहेली या पड़ोसन से ‘सैनिटेरी नैपकिन’ वगैरा  माँग के ही संतुष्ट हो लेना”…
“मतलब?”…
“सोच लेना कि ..संतोषम परम सुखम”..
“हाँ!…यही सही भी रहेगा”…
?…?..?..?..
“ठीक है!…तो फिर चलो…आज थोड़े से ही संतोष कर लेते हैँ”…
“ओ.के…जैसी तुम्हारी मर्ज़ी”मैँ ठण्डी साँस लेते हुए बोला…
“लगता है बारिश होने वाली है”बीवी खिड-अकी से बाहर देखती हुई बोली….
“हम्म!…बादलों की गड़गड़ाहट से तो मुझे भी यही लग रहा है”…
“पकोड़े खाओगे?”…
“हाँ-हाँ!…क्यों नहीं…नेकी और पूछ-पूछ?”…
“तो फिर चलो”…
“कहाँ?”…
“अपने नए पड़ौसियों के घर”…
“उन्होंने पकोड़े बनाए हैँ?”…
“मुझे क्या पता?”…
“तो?”…
“अरे बाबा!…अभी थोड़ी देर पहले बताया ना कि आलू-प्याज़ खत्म हो रहे हैँ?”…
“तो?”…
“तो क्या खाली बेसन ही तल के दे दूँ?”…
“नहीं!…खाली बेसन से क्या फायदा?”…
“तो फिर चलो!…माँग के लाते हैँ”…
“अपने बस का नहीं है”…
“अरे!…अभी-अभी तो जनाब ये बड़ी-बड़ी डींगे हाँक रहे थे कि इन से बड़ा भिखमँगा पूरे जहाँ में ढूँढे से मिलेगा और दो-चार आलू-प्याज़ माँगने में भी शर्म आ रही है जनाब को”…
“अरे!…व्वो?…वो तो बस मैँने ऐसे ही तुम्हारे सामने नम्बर बनाने के लिए मज़ाक-मज़ाक में कह दिया था और तुम हो कि उसे सीरियसली ले बैठी”….
“क्या?”…
“एक्चुअली!…इस सब से मुझे डर लगता है…किसी से मना कर दिया तो?”…
“कर दिया तो कर दिया…हमें कौन सा डर मारा है किसी का?..किसी और के घर के आगे डेरा डाल के खड़े हो जाएँगे”…
“मुझ से नहीं होगा ये सब”…
“क्यों?”…
“शर्म आती है”….
“वाह…मेरे बजरंगी शेर…वाह….छुप-छुप के लड़कियाँ ताड़ते वक्त तो ज़रा सी भी शर्म नहीं आती”…
“तो?”…
“उनसे भी तो माँगते ही हो ना?”…
“लेकिन कोई कम्बख्त मारी देती तो नहीं”…
“तो फिर तुम कौन सा सब्र कर के रुक जाते हो?”…
“दूसरी के पास जा के उसका फोन नम्बर माँगते हो कि नहीं?”…
“हाँ!…माँगता तो हूँ?”…
“तो फिर पड़ौसियों से माँगने में भला क्या दिक्कत है?”…

“ना!…अपने बस का नहीं है ये सब”…
“ठीक है!…तुम्हारे बस का नहीं है तो फिर बैठे रहो यहीं हाथ पे हाथ धर के…मैँ अकेली ही हो आती हूँ”…
“नहीं!…बिलकुल नहीं”…
“ओफ्फो!…क्या मुसीबत है?…ना खुद किसी से कुछ माँगता है और ना ही मुझे माँग के लाने देता है”….
“हे ऊपरवाले!…हे परवरदिगार.. हे मेरे अल्लाह!…हे म्रेरे भगवान…
कुछ समझाओ मेरे इस निगोड़े नटवर लाल को कि ऐन टाईम पे कोई और नहीं बल्कि पड़ौसी ही काम आते हैँ”…
“आज तक कोई आया है?…जो अब आएगा”…. “यही तो तुम में सबसे बड़ी कमी है…कभी किसी से कुछ माँगोगे नहीं तो कोई अपने आप आ के थोड़े ही तुम्हारी झोली में डाल जाएगा?”…
“अपने बस का नहीं है कि एक-दो आलू-प्याज के लिए मैँ हर किसी ऐरे-गैरे…नत्थू-खैरे की चिरौरी करता फिरूँ”…
“हे भगवान!…पता नहीं कब अक्ल आएगी इस कम्बख्त को?”…
“कितनी बार समझा चुकी हूँ कि ज़िन्दगी में अगर बढिया तरीके से कामयाब होना है तो हाथ फैलाना सीखो….हाथ” बीवी हथेलियाँ फैला उन्हें नचाती हुई बोली…
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“किस से माँगूँ?…किसके आगे फैलाऊँ हाथ?….यहाँ तो सब के सब स्साले!…..कँगले की औलाद बसते हैँ”…
“ये तुम 552 नम्बर वाले शर्मा जी से कुछ माँग के क्यों नहीं देखते?…बड़े ही सज्जन आदमी हैँ…तुरंत बिना किसी ना-नुकर के दे देंगे”…
“हाँ-हाँ…बड़े ही सज्जन आदमी हैँ”….
“वोही तो”….
“पिछले हफ्ते मेरी ‘नेज़ल ड्रॉप’ माँग के ले गए थे कि अभी दो मिनट में नाक साफ कर के वापिस देता हूँ”…
“तो?”…
“अभी तक नहीं लौटाई”….
“तो तुम भी कुछ माँग लेते”…
“माँगा ना”…
“क्या?”…
“उनका लाल लँगोट”…
“हे भगवान!…कुछ इलाज करो मेरे इस ढपोरशँख का…..पहले तो किसी से कुछ माँगेगा नहीं और अगर माँगेगा तो उसका लाल लंगोट”बीवी अपना माथा पीटती हुई बोली……
“अरे!…तुम सुनो तो…मैँने उनसे उनका लंगोट क्या माँग लिया?….बेशर्म हो के तुरंत कहने लगे…
“माफ करना!…ऐसी निजी चीज़ें बाँटने के लिए नहीं होती…सॉरी”….
“ओह!…तो तुमने ऐसी निजी चीज़ माँगी ही क्यों?”…
“निजी?”…
“हाँ!…निजी”…
“झूठ!…बिलकुल झूठ…..मैँने खुद उसे…उसके भाई के साथ एक ही कच्छा शेयर करते हुए देखा है”….
“क्या सच?”…
“बिलकुल सच”….
“अपनी इन्हीं आँखों से?”….
“हाँ-हाँ!…अपनी इन्हीं आँखों से”….
“यू मीन!…एक पाँयचे में इसकी टाँग तो….दूसरे पाँयचे में उसकी टाँग?”…
“पागल हो गई हो क्या?”…
“क्यों?…मैँ भला क्यों पागल होने लगी?…पागल हों मेरे दुश्मन”….
“अरे!…मेरा मतलब था कि कभी वो इस्तेमाल कर लेता है तो कभी उसका भाई”…
“ओह!….तो फिर ऐसे कहना था ना….लेकिन मेरे ख्याल से तुम उससे…उसके कच्छे के बजाय कुछ और माँगते तो ज़्यादा बेहतर होता”….
“और है ही क्या उन कँगलों के पास?”….हमेशा ही तो चड्ढी-बनियान में इधर से उधर मटरगश्ती कर रहे होते हैँ”…
“ओह!….क्या पता बेचारों के पास एक ही लंगोट हो?”…
“लाल वाला?”…
“हाँ-हाँ!…वही… और उसी को रोज़ाना धोते…सुखाते और पहनते हो?”…
“बारी-बारी से”…
“हाँ भय्यी!…बारी-बारी से”….
“तो फिर तुम ये 422 नम्बर वाले गुप्ता जी से कुछ क्यों नहीं माँग के देखते?…वो सज्जन टाईप के ही इनसान हैँ”…
“अच्छा?…तुम्हें कैसे पता?”….
“अरे!…कैसे …क्या पता?…कई बार मैँ खुद ही ट्राई कर चुकी हूँ”…
“मतलब?”…
“चाहे उनसे मैँ अपने सूटों की तुरपाई करवा लूँ या फिर ब्लाउज़ के हुक टँकवा लूँ…कभी इनकार ही नहीं करते”…
“बड़े ही सज्जन आदमी हैँ”…
“अरे!…तुमने उससे दो-चार ब्लाउज़ों के हुक क्या टंकवा लिए?…वो कमीना …सज्जन आदमी हो गया?”…
“क्यों?…तुम्हें क्या कमी दिखती है उनमें?”…
“बेचारा!…बड़ा ही बदनसीब है”…
“अच्छा?….तुम्हें कैसे पता?”…
“बेचारे को भरी जवानी में जो उसकी बीवी अकेला छोड़ के भाग गई”…
“गुड!…वैरी गुड!…उस स्साले…दो कौड़ी के आदमी के साथ तो ऐसा ही होना चाहिए था”…
“क्यों?…उसने क्या तुम्हारी भैंस खोल ली है जो तुम उसे इतना बुरा-भला कह रहे हो?”बीवी तमकती हुई बोली…
“अरे!…भैंस खोली होती तो मैँ उसे नादान समझ कर माफ भी कर देता”…
“तो?”…
“याद है?  जो पिछले साल वैलैनटाईन वाले दिन मेरा और तुम्हारा झगड़ा हुआ था?”…
“हाँ!…अच्छी तरह याद है…उसे कैसे भूल सकती हूँ?”…
“हमारे उस झगड़े की असली वजह…असली कारण…यही गुप्ता ही तो था”…
“क्या बात कर रहे हो?…तुमने पहले कभी नहीं बताया”…
“याद है!…पिछले साल सीलिंग की वजह से अपना काम बड़ा डाउन था”…
“हाँ!…याद है”…
“तो वैलैनटाईन वाले दिन मैँने उससे दो हज़ार रुपए दस्ती क्या माँग लिए….रोनी सी सूरत बना अपना दुखड़ा खुद ही गा-गा सुनाने लगे कि….

  • बीवी पान खाने तक को पैसे नहीं देती है…
  • बीड़ी फूंके कई महीने गुज़र गए….
  • सुरती तक को रि-सॉईकिल कर के चबाता हूँ….

“रि-सॉईकिल?…सुरती को?….मतलब?”…
“मैँने भी उनसे यही…सेम टू सेम…यही सवाल किया था?”…
“फिर क्या जवाब दिया उन्होंने?”…
“कहने लगे..कि…

  • पहले तो सुरती को मज़े से रस ले-ले के चबाता हूँ…

“ओ.के”…

  • फिर स्वाद खत्म होने पर उसे उगल कर चाँदनी रात के दिन धूप में सूखने के लिए डाल देता हूँ” …

“ओ.के”…
“और फिर …
“पुन: उसी को रस ले-ले के चबाता हूँ?”…
“जी”…
“छी!….छी-छी”…
“बिलकुल!…बिलकुल मेरे मन में भी उस दिन…उन्हें इसी तरह….छी!…छी-छी कह धिक्कारने के भाव उत्पन्न हुए थे लेकिन अफसोस…मैँ तो  सिर्फ..गुड!…वैरी गुड कर के रह गया”…
“वो भला क्यों?”…
“अरे यार!…उस दिन अगर तुम उस बेचारे के चेहरे की बेचारगी को देखती तो तुम्हारे जैसा पत्थर दिल इनसान भी एक बार को पसीज उठता”…
“ओह!…
“तो इसलिए आपको अपने दिल में उमड़ रहे विचारों के विपरीत गल्त शब्दों को अपनी ज़ुबान देनी पड़ी?”…
“जी”…
“तो फिर क्या कहा उसने?”….
“कहना क्या था?…अपना दुखड़ा गा-गा सुनाने लगा कि…
तलब के मारे इतना बुरा हाल है कि हलक से निवाला तक नीचे नहीं उतरता है”…..
“ओह!…
“इस तरह घुट-घुट के….मर-मर के जीने से तो अच्छा है कि ‘भंग-धतूरा’ निगल के अपनी जान दे दूँ”…
“ओह!…शायद उन्हें पता नहीं होगा कि ‘भंग-धतूरे’ का स्वाद बड़ा ही विस्मयकारी रूप से कड़वा होता है”…
“जी”…
“तुम्हें उन्हें ‘सलफास’ खा के आत्महत्या करने का आईडिया देना चाहिए था”…
“हुँह!…’सलफास’ खा के आत्महत्या करने का आईडिया देना चाहिए था”….
“तुम्हें कुछ पता भी है कि ‘सल्फास’ का स्वाद कितना बकबका होता है?”…
“कितना बकबका होता है?”…
“इतना बकबका होता है….इतना बकबका होता है..खाने वाला इनसान असमय ही बकबकाने लगता है”…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“मैँने उन्हें समझाया कि गुप्ता जी!…आत्महत्या करना तो बहुत बड़ा पाप है….आप तो अच्छे खासे जवाँ मर्द हैँ….ऐसी नपुंसकता भरी कायराना सोच रखना आपको शोभा नहीं देता”…
“गुड!…अच्छा किया”….
“फिर क्या हुआ?”….
“होना क्या था?…..गुटखा चबाने के नाम पे मुझसे दो रुपए और ले मरे”….
“ओह!…बेचारा…लेकिन एक बात नहीं समझ आ रही”…
“क्या?”…
“यही कि तुमने उस गरीब से पैसे माँगे ही क्यों?
“तुम्हारे लिए”…
“मेरे लिए?”…
“हाँ-हाँ!…तुम्हारे लिए”…
“झूठ!…बिलकुल झूठ…मैँने भला कब तुमसे दो हज़ार रुपए माँगे थे?”…
“पैसे नहीं माँगे थे लेकिन गिफ्ट तो माँगा था”…
“मतलब?”…
“याद करो!…पिछले वैलैनटाईन पर तुमने…मुझपे ऐज़ ए गिफ्ट…घड़ी देने के लिए दबाव डाला था के नहीं?”…
“नहीं!…बिलकुल नहीं…दबाव तो बिलकुल नहीं…तुमने खुद ही प्रामिस किया था”….
“मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा था जो मैँ तुमसे ऐसे वेल्ले प्रामिस करता फिरता?”…
“तुमने!…तुमने ज़बरदस्ती अपने शब्दों को मेरी ज़बान दी थी”…
“अब अपनी मर्ज़ी से हो या फिर ज़बरदस्ती लेकिन तुमने वादा तो किया था ना?”…
“तो?”…
“तुमने वादा किया था…लेकिन निभाया नहीं था”….
“अरे वाह!…ऐसे कैसे नहीं निभाया था?….कुछ तो ऊपरवाले के कहर से डरो”….
“क्यो?…ऊपर कोई डॉन…भाई या फिर कसाई बसता है जो मैँ उससे डरती फिरूँ?”बीवी कमर पे हाथ रख अपनी एक्सरे नज़रों से छत के पार देखने की कोशिश करते हुए बोली…
“अरे मेरी अम्मा!…मैँ किसी ‘भाई’ या ‘कसाई’ की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि मैँ तो उस ऊपर बैठे परम पिता परमात्मा याने के ऑल माईटी गॉड की बात कर रहा हूँ कि…उसके कहर से डरो”…
“मैँने कोई चोरी करी है?….या फिर डकैती डाली है?…जो मैँ डरती फिरूँ?”….
“मैँ भला क्यों डरने लगी?….डरें मेरे दुश्मन”….
“ओफ्फो!…पिछले वैलैनटाईन पे मैँने तुम्हें घड़ी ला के दी थी के नहीं?”….
“हाँ!…बड़ी….बहुत बड़ी घड़ी ला के गिफ्ट में दी थी…माँगी मैँने तुमसे ‘टाईटन’ की हाथ वाली घड़ी थी लेकिन तुम उठा के ले आए थे पैंतीस रुपए में सड़ी सी दिवार घड़ी”….
“अरे!…तुम्हें टाईम देखना था के साईज़ देखना था?…..हाथ घड़ी हो या दिवार घड़ी…क्या फर्क पड़ता है?…
“घड़ी तो थी ना?”…
“हाँ-हाँ!…घड़ी हो या घड़ियाल…तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?….पहननी तो मैँने थी ना?…कौन सा तुमने पहननी थी?”…
“तो?”…
“कल को मेरे बजाय किसी टुनटुन को ब्याह के ले आते तो भी तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ना था”…
“अरे!…पागल हो गई हो क्या?…तुम्हारे जैसी मस्त आईटम को छोड़कर मैँ भला टुनटुन को क्यों ब्याह कर लाने लगा?”…
“क्या सच?”…
“और नहीं तो क्या झूठ?”…
“तो फिर सच-सच बताओ”..
“क्या?”…
“यही कि क्या सोच के दिवार घड़ी लाए थे कि मैँ बड़ी खुश होउँगी?…साबासी दूंगी?”….
“अरे!…मेरी माँ….मैँ तो वो घड़ियाल…ऊप्स!…सॉरी घड़ी इसलिए लाया था कि तुम्हें पसन्द आएगी”….
“जी नहीं!…आप इसलिए लाए थे कि बड़ा सा पैकेट दिखा के मेरे साथ-साथ मेरी माँ को भी इंप्रैस कर सको”…
“तेरी माँ से मैँने लड्डू लेने थे जो मैँ उसे प्रभावित करने की सोचता?”…
“अब मुझे क्या पता कि लड्डू लेने थे या फिर….
हा…हा…हा…
“अरे यार!….तुम्हें शुरू से ही बड़ी चीज़ें जैसे ‘बड़ी कार’…’बड़ा घर’…’बड़े-बड़े मैच्योर्ड बच्चे पसन्द थे कि नहीं?”…
“तो?”…
“यहाँ तक कि तुम्हें ‘बच्चन’ भी छोटा वाला नहीं बल्कि बड़ा वाला याने के ‘अमिताभ बच्चन’ पसन्द था तो मैँने सोचा कि….
“था नहीं!…है”…
“मतलब?”…
“मुझे तो अभी भी बड़ा वाला…याने के ‘अमिताभ बच्चन’ पसन्द है”…
“ओह!…

“याद
रहे!…इस रविवार….दो बूंद ज़िन्दगी की”…
“तो कितना क्यूट और हैण्डसम दिखता है ना?”…
“बहुत”…
“अरे हाँ!…याद आया…तभी….तभी तो मैँ तुम्हारे लिए हाथ घड़ी के बजाय…वो दिवार घड़ी लाया था”…
“क्या सच?”…
“और नहीं तो क्या?”…
“सच्ची!…तुम कितने अच्छे हो”…
“सॉरी यार!…मैँने तुम्हें गलत समझा”…
“इटस ओ.के”…
“तो फिर चलें?”…
“कहाँ?”…
“आलू-प्याज़ माँगने…और कहाँ?”…
“हाँ-हाँ!…क्यों नहीं?….अभी चलते हैँ…तुरंत चलते हैँ”…
हा…हा…हा…हा…
हा….हा…हा…हा…
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
rajivtaneja2004@gmail.com
rajiv.taneja2004@yahoo.com
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