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खेल खिलाड़ी का-राजीव तनेजा

हंसी ठट्ठा
हंसी ठट्ठा
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***राजीव तनेजा***

“जब मुफ्त में मिले खाने को तो कद्दू जाए कमाने को”
सब के सब स्साले!…निठल्ले….कामचोर की औलाद…मुफ्त में जेल की रोटियाँ तोडे जा रहे थे दबादब। बाकि सब तो खैर ठीक ही था लेकिन एक ख्याल दिल में उमड़ रहा था बार-बार कि…”आखिर!…जेल से छूटने के बाद मैं करूँगा क्या?” अब कोई छोटा-मोटा काम-धंधा करना तो अपने बस का था ही नहीं शुरू से। इसलिए अपुन का इरादा तो फुल्ल बटा फुल्ल लम्बा हाथ मारने का था लेकिन कोई भी आईडिया स्साला!..इस भेजे में घुसने को राज़ी ही नहीं था और घुसता भी कैसे? आदत तो अपुन को थी हमेशा तर माल पाडने की और यहाँ…ये स्साला!…जेल का खाना…माशा-अल्लाह। अब क्या बताऊँ?…ये अफसर लोग ही सब का सब हडप जाते हैँ खुद ही और डकार तक नहीं लेते…छोड़ देते हैं हम जैसों के लिए मूंग धुली का बचा-खुचा पानी और कुछ अधजली…कच्ची-पक्की रोटियाँ।
बाहर किसी कुत्ते को भी डालो तो वो भी कूँ …कूँ कर किंकियाता हुआ काटने को दौड़ेगा और अपनी हालत तो ऐसी थी कि काटना तो दूर…सही ढंग से भौंक भी नहीं सकते थे। भौंकना और काटना सब अफसर लोगों के जिम्मे जो था।लेकिन एक दिन अचानक सब काया-पलट होते नज़र आया…चकाचक सफेदियाँ कर पूरी बैरक को चमकाया जा रहा था…’फ्रिज’…..’सोफा’…’प्लाज़मा टीवी’….’गद्देदार पलंग’ और ना जाने क्या-क्या?… मैने मन ही मन सोचा कि “ये सब स्साले…इतना सुधर कैसे गये? किसी से पता किया तो जवाब मिला….
“इतना परेशान ना हो….एक ‘वी.आई.पी’ आ रहा है कुछ हफ्तों के लिये। उसी की खातिरदारी के लिए ये सब इंतज़ाम हो रहा है…तेरे बाजू वाली बैरक में ठहरने का इंतज़ाम किया गया है उसका”
इन दिनों एक ठुल्ले से अपुन ने अच्छे ताल्लुकात बना लिए थे। बस!…कुछ खास नही…वही पुराने ज्योतिष के हथकण्डे अपनाते हुए आठ-दस उल्टे-सीधे डायलाग मारे…तीन-चार का तुक्का फिट बैठा और हो गया एक नया चेला तैयार। बस!…फिर क्या था?…उसी को मस्का लगाया कि… “एक बार…बस!…एक बार…किसी भी तरह से इंट्रोडक्शन भर करवा दो…बाकि सब मैँ अपने आप सलट लूँगा” कुछ खास मुश्किल नहीं था ये सब उसके लिए। उसी की ड्यूटी जो लगी थी उस ‘वी.आई.पी’ के साथ। सो!…अगले दिन ही भगवान को हाज़िर-नाज़िर मान अपुन उसके दरबार में हाज़िर था।
“ये लो!…उसे तो मैँ पहले से ही जानता था और जानता भी क्यूँ नहीं?…’वी.आई.पी’  बनने से पहले पट्ठा!…अपनी ही कॉलोनी में मिट्टी का तेल ब्लैक किया करता था और करता भी क्यों नहीं?.. तेल का डिपो जो था उसके सौतेले बाप का। मंदी में भी खूब नोट छापे पट्ठे ने और आज ठाठ तो देखो…बन्दे को बन्दा नहीं समझता है। लेकिन अपुन भी कोई भूलने वाली चीज़ नय्यी है …  देखते ही झट से पहचान गया। गले मिलते ही मैने भी फट से पूछ लिया कि…
“अरे!…नेताजी…आप यहाँ कैसे?”…
“अरे यार!…कुछ ना पूछ…सब इन मुय्ये चैनल वालों का किया धरा है”…
“स्साले!…सोचते हैँ कि मैँ यूँ ही मुफ्त में सवाल पूछता फिरूँ…पागल है स्साले!…सब के सब”…..
“और नहीं तो क्या?…आपको क्या किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो आप ऐसे ही …फोकट में अपनी ज़बान काली करते फिरें?”मैं जोश में आ नेताजी की साईड लेता हुआ बोला…
“इन स्सालों को ज़रा भी गुमान नहीं कि कितने खर्चे हैँ?…किस-किस को हफ्ता पहुँचाना पड़ता है?…किस-किस को मंथली दे के आनी पड़ती है?..
“किस-किस को?”मेरे स्वर में उत्सुकता थी…
“अरे!…ये पूछ कि किस-किस को नहीं?…ऊपर से नीचे तक…स्साला!…कोई भी बिना लिए रहता नहीं है”
“ऊपर से नीचे तक?”…
“हाँ!…भय्यी …ऊपर से नीचे तक…इस हमाम में सभी नंगे हैँ”…
“ओह!…
“यहाँ तो गांव स्साला!…बाद में बसता है…कूदते-फाँदते भिखमंगे कटोरा हाथ में लिए पहले टपक पड़ते हैं”…
“आपको पता भी ना चला कि कब स्साले!…फोटू खींच ले गये?” मेरे स्वर में हैरानी का पुट था..
“पता होता तो स्सालों का टेंटुआ ना दबा देता वहीं के वहीं?”नेताजी लगभग गुस्से से दाँत पीसते हुए  बोले …
“जी!…ये तो है”
आज लग रहा था कि जैसे नेताजी चुप नहीं बैठेंगे…कोई सुनने वाल जो मिल गया था। जब से संसद में सवाल पूछने के नाम पर बवाल हुआ था…कोई इनकी सुन ही कहाँ रहा था?…और मैँ भी तो अपने अन- महसूसे मतलब की खातिर उनकी लल्लो-चप्पो किए जा रहा था। मैने मस्का लगाते हुए कहा… “नेताजी!…आपका तो तेल का डिपो था ना?”….
“हाँ!…था तो सही…क्यों?…क्या हुआ?”नेताजी प्रश्नवाचक  दृष्टि से मेरी तरफ ताकते हुए बोले
“अच्छा-भला कमाई वाला काम छोड़ के आप इस नेतागिरी जैसी टुच्ची लाईन में कैसे आ गये?”…
“अरे!..तुझे नहीं पता…इससे बढ़िया कमाई वाला तो कोई काम ही नहीं है पूरे हिंदोस्तान मैं”नेताजी आहिस्ता से फुसफुसाते हुए बोले…
“लेकिन कोई स्टेटस-वटेटस भी तो होना चाहिए?…ऐसे बे-इज्जत हो के नोट कमाए तो क्या खाक कमाए?”…
“अरे!..खाली फ़ोक्के स्टेटस को क्या चाटना है?…अपुन को तो कमाई दिखनी चाहिए…कमाई…भले ही कोई बेशक हमसे पैसों के बदले अपने बच्चे तक पिटवा ले…हमें कोई ऐतराज़ नहीं”नेताजी गर्व से छाती फुलाते हुए बोले
“ओह!…
“तेल के डिपो की वजह से अपनी जान-पह्चान बहुत थी”…
“जी!…वो तो थी”..
“थी क्या?…अब भी है“नेताजी आँखे तरेरते हुए बोले…
“जी!..बिल्कुल”…
“जान-पहचान तो अपुन की भी बहुत है”मैँ मन ही मन सकुचाते हुए मुस्काया लेकिन ऊपर से एकदम अनजान बनता हुआ बोला…
“लेकिन खाली जान-पहचान से होता क्या है?”…
“अरे बुद्धू!…उसी से तो सब कुछ होता है”..
“वो कैसे?”…
“यार!…गली-मोहल्ले में सबसे वाकिफ होने कि वजह से इलैक्शन के टाईम पे सभी पार्टी वाले अपुन को ही तो याद करते थे कि नहीं?”..
“जी!…करते तो थे”…
“चाहे वो ‘भगवे’ वाले हों…या फिर ‘हाथी’ वाले…या फिर ‘हाथ’ वाले या फिर किसी भी अन्य ठप्पे वाले …सभी अपुन के दरबार में हाजिरी बजाते थे”..
“जी”मैंने मन ही मन लपेटना शुरू कर दिया था …
“उनसे जो माल-मसाला मिलता था पब्लिक में बांटने के लिए…उसका आधे से ज़्यादा तो मै अकेला ही डकार जाता था और चूँ तक नहीं करता था”..
“ओह!…तो फिर इस सब का हिसाब-किताब कैसे देते थे उनको?”..
“हिसाब-किताब?”
“जी”….
हा…हा…हा…हा”
“अरे बुद्धू!…ये सब दो नम्बर के धन्धे होते हैँ…इनका हिसाब-किताब नहीं रखा जाता”…
“लेकिन फिर भी…थोडी-बहुत लिखा-पढी तो कर के देनी ही पड़ती होगी?..
“हाँ!…खानापूर्ति के नाम पर थोडी-बहुत लिखा-पढी तो कर के देनी ही पड़ती थी लेकिन उसके लिए तो मैंने परमनेंटली एक CA रख छोड़ा था ना…वही उल्टे-सीधे खर्चे लिखवा दिया करता था उनके हिसाब में”…
“जैसे?”…
“जैसे… ‘दारू की पेटियाँ’……’जूते-चप्पल’.. लुंगी …धोती और साड़ियाँ ….. ‘झण्डे’….’बैनर’…… ‘ड्ण्डा घिसाई’ वगैरा वगैरा”….
डण्डा घिसाई?…ये कौन सा खर्चा होता है?” मैं मन ही मन मुस्काता हुआ बोला …
“तू नहीं समझेगा…ये थोड़ा वयस्क टाईप का …दो नंबर का खर्चा होता है”…
समझ तो मैं सब रहा था लेकिन मुँह से बस यही निकला “ओह!…
“आज नेताजी अपने आप ही सब कुछ उगलते जा रहे थे और मैँ किसी आज्ञाकारी शिष्य की भाँति बिना उन्हें टोके सब कुछ ग्रहण करने में ही अपनी भलाई समझ रहा था। आज चुप रह कर मतलब निकालने की मेरी कला काम आ ही गई। अब गर्व से सीना तान बताउंगा बीवी को कि…”देख!…चुप रहने के कितने फायदे होते हैँ।हर वक़्त बकती रहती थी कि…”सिर्फ मेरे आगे ही ज़ुबान लडाते हो…कभी बाहर जा के किसी के आगे मुँह खोलो तो जानूँ”…
अब बोल के देखियो ना कि… “बाहर तो घिघ्घी बंध जाती है जनाब की ….ज़ुबान तालु से चिपक…खुद को ताला लगा…चाबी ना जाने कहाँ गुम कर देती है?”…मुँह ना तो तोड़ दिया तो मेरा भी नाम राजीव नहीं।
“कहाँ खो गये मित्र?” नेताजी की अवाज़ सुनाई दी तो हकबकाते हुए जवाब दिया कि… “बस ऐसे ही”
“कई बार तो ऐसा होता था कि मैँ अकेला ही पूरा का पूरा माल हज़म कर जाता था” नेताजी बात आगे बढाते हुए बोले
“पूरा?”… मैने हैरानी से पूछा

“और नहीं तो क्या अधूरा?”…
“फिर बांटते क्या थे?….टट्टू?”…
“अरे!…पूरे इलाके में अपुन की धाक जम चुकी थी…सो!…सभी काम-धन्धा करने वालों के यहाँ…“पार्टी फ़ंड के नाम पर चंदा दो” का फरमान जारी कर अपने गुर्गे भेज देता था…. और सारा का सारा काम खुद ब खुद निबटता जाता था”..
“ओह!…लेकिन सब के सब भला कहाँ देते होंगे?…कोई न कोई तीसमारखां तो…
“अरे!…है कोई माई का लाल पूरे इलाक़े में जो अपुन को इनकार कर सके?…स्साले का जीना हराम ना कर दूंगा?”नेताजी अपनी आस्तीन ऊपर कर आवेश में आते हुए बोले
“लेकिन फिर भी कोई ना कोई अड़ियल टट्टू तो मिल ही जाता होगा?” मैँ फिर बोल पड़ा
“ऐसे घटिया इनसान तो थोड़े-बहुत हर कहीं भरे पड़े हैं यार”..
“तो फिर उनसे कैसे निबटते थे?”मेरे स्वर में उत्सुकता का पुट खुद ब खुद शामिल हो चुका था…
“हर बार दो-चार शरीफ़ज़ादों के यहाँ ‘इनकम टैक्स वालों का छापा पड़वा देता था और  नकली माल बनाने वालों के लिए तो मेरा एक फोन कॉल ही काफी होता था”…
“स्साले!..अगले ही दिन अपनी नाक रगड़ते हुए आ पहुँचे थे कि..
“हमसे भूल हो गई…हमका माफी दई दो” नेताजी फिल्मी तर्ज़ पे गाते हुए बोले …
“ओह!…
“लेकिन एक स्साला!…फैक्ट्री मालिक ऐसा अड़ियल निकला कि लाख समझाए पर भी टस से मस ना हुआ”…
“ओह!..फिर क्या हुआ?”…
“अपुन भी कौन से कम हैं?…हर साँप के काटे का इलाज है अपने पास”…
“क्या मतलब?”..
“इस जोड़ का भी तोड़ निकाल ही लिया”…
“वो कैसे?”..
“एक तरफ स्साले की फैक्ट्री में हड़ताल करवा दी लाल झण्डे के तले और दूसरी तरफ अपना फर्ज़ समझ लेनदारों का डंडा पूरा का पूरा अंदर करवा दिया उसके कि… “हमें तो फुल एण्ड फ़ाइनल अभी चाहिए”…
“ओह!..
“थोड़ी-बहुत कसर बाकी लगी तो प्लेन के तहत दो-चार वर्करों को चाकू मरवाया और ताला लगवा दिया हरामखोर की फैक्ट्री में”…
“ओह!…फिर क्या हुआ?” मेरे माथे पे चिंता कि रेखाएं अपना डेरा जमा चुकी थी …
“जब हफ्ते भर ताला लटका रहा तो खुद-बा-खुद सारी हेकडी ढीली हो गयी पट्ठे की”…
“गुड!…ये बहुत बढ़िया तरकीब सोची आपने” मेरे स्वर में प्रशंसा और हिकारत का मिलाजुला पुट था…
“और नहीं तो क्या?” अपनी तारीफ सुन नेताजी की छाती गर्व से फूल चुकी थी …
“तो क्या सारा का सारा माल-पानी बांट देते थे?”मुझ से अपनी उत्सुकता छुपाए न चुप रही थी
“इतना येढा समझा है क्या?…अपुन भिण्डी बाज़ार की नहीं…दिल्ली की पैदाइश है….दिल्ली की”…
“अगर सब कुछ बांट दूंगा तो मैँ क्या गुरुद्वारे जाउंगा?”…
“ये ‘बंगला-गाडी’….ये ‘नौकर-चाकर’…ये मॉल…ये ‘शोरूम’…ये ‘फार्म हाऊस’…. ये ‘फैक्ट्री’…
सब का सब क्या आसमान से टपका है कि मन्तर मारा और सब हाज़िर?”…

“क्या मतलब?”मैं उनकी बात का मतलब ठीक से समझ नहीं प रहा था…
“अरे बुद्धू!…नोट खर्चा किए हैँ नोट…और नोट जो हैँ….वो पेड़ों पे नहीं उगा करते कि जब चाहा.. हाथ बढाया और तोड लिए हज़ार-दो-हज़ार”…
“तो फिर?”…
“थोडा-बहुत तो बांटना ही पडता था झुग्गी-बस्तियों वगैरा में…आखिर!…वोट बैंक जो थे”…
“लेकिन इतनी बड़ी बस्ती…इतने सारे लोग…कैसे मैनेज करते होंगे आप ये सब?”…
“अरे!…कुछ खास मुश्किल नहीं है ये सब….बस…बस्ती के प्रधान को अपनी मुट्ठी में कर लिया तो किला फतेह समझो”…
“यही तो सबसे मुश्किल काम होता होगा ना?”
“कोई भी काम मुश्किल नहीं है अपुन के लिए….बस!…मुन्नी बाई को इशारा किया और पहुँच गई अपने पूरे दल-बल के साथ”…
“ओह!…उसके लटके-झटकों पे तो पूरी दिल्ली फिदा है तो इन प्रधानों-वरधानों की क्या मजाल जो काबू में नहीं आते”…

“और नहीं तो क्या?”…
“उनमें बाँटने के लिए देसी की पेटियाँ तो हम पहले से ही मँगवा के रख लेते थे अपने गोदामों में”…
“देसी?” मैँ मुँह बिचकाता हुआ सा बोला
“हाँ भाई!…’देसी'”…..
“इंग्लिश आप अफफोर्ड नहीं कर सकते या… मैंने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया
“अरे नहीं!…ऐसी कोई बात नहीं है…अफफोर्ड तो मैं अंग्रेज़ी के बाप को भी आसानी से कर सकता हूँ लेकिन इन स्सालों की औकात ही नहीं है इसकी”…
“क्या मतलब?…फ्री में मिले तो मुझ जैसे डीसंट लोग शैम्पेन को भी ताड़ी की तरह डकारने लगते हैं?” अपनी औकात पे हमला होता देख मैं पूरी तरह भड़क चुका था…
“शांत!…गदधारी भीम…शांत…इतना काहे को भड़कता है?”…
“अरे!..कमाल करते हैं आप भी…इस तरह सरेआम अपनी अस्मिता पे हमला होते देख मैं भड़कूँ नहीं तो और क्या करूँ?” मैं लगभग सफाई सी देता हुआ बोला…
“ओह!…इटस नोट ए बिग थिंग…दरअसल क्या है कि …इन हरामखोरों को इंगलिश पचती नहीं है आसानी से…इसलिए ऐसा कहा”…
“ओह!…
“पागल कहीं के…कहते हैँ कि…”बोहत आहिस्ता-आहिस्ता चढती है बाबू…सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है “
“बात तो आपकी सही है लेकिन गधों को और घोड़ों को …सभी को आप एक ही फीते से कैसे नाप सकते हैं?…सभी एक ही थैली चट्टे-बट्टे थोड़े ही हैं?”मेरे स्वर में आक्रोश का पुट साफ़ दिखाई दे रहा था”…
“ओह!…मी मिस्टेक…मुझे डग और अल्सेशियन में फर्क रखना चाहिए था”..
“बिल्कुल!…कुछ एक तो मेरी तरह के ठेठ मोलढ़ होते हुए भी ‘इंग्लिश’ को भरपूर एंजॉय करते हैं”…
“सही कहा तुमने…लेकिन चंद ऐसे गिने-चुने नमूनों के लिए बाकी सारी जमात के साथ भेदभाव तो नहीं किया जा सकता ना?”…
“बात तो आप सही कह रहे हैं लेकिन क्या हम जैसे चंद गिने-चुने उच्च कोटि के पियक्कड़ों के लिए कुछ न कुछ अलग से अररंगेमेंट किया जाना जायज़ नहीं है?”..
“लेकिन जो बीत गया…सो बीत गया….उसके लिए अब किया ही क्या जा सकता है?”…
“अरे वाह!…वर्तमान बिगड़ रहा है तो क्या?…भविष्य तो अपने ही हाथ में है ना?”…
“क्या मतलब?”..
“उसे तो सँवारा ही जा सकता है”…
“लेकिन कैसे?”…
“हम जैसों को ‘इंग्लिश’ की पेटी उपलब्ध करवा के”…
“हें…हें…हें…वैरी फन्नी “…
“जी!…वो तो मैं शुरू से ही….मेरी बीवी भी यही कहती है”….
“ठीक है!…तो फिर बीती ताही बिसार के मैं आगे बढ़ते हुए अब आगे की सोचता हूँ और इस बार के इलैक्शन में पहले से ही कुछ खास लोगों के लिए दो-नम्बर का माल तैयार करवा लूँगा आर्डर पे” मेरे चेहरे के भावों से अनभिज्ञ नेताजी अपनी रौ में बोलते चले गए  …
“तैयार करवा लेंगे?…आर्डर पे?…मैं कुछ समझा नहीं…ज़रा खुल के बताएं”…
अब नेताजी चौकन्ने हो इधर-उधर देखने के बाद आहिस्ता से बोले…”अरे यार!…दो-नम्बर का माल माने …  ‘बोतल असली…माल नकली’ …
“लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है?…
“माल नकली?” मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था
“अरे बेवाकूफ!…बोतल से असली माल सिरिंज के जरिए बाहर और सिरिंज से ही नकली माल अन्दर”
“ओह!..लेकिन क्या अपने खास बंदों के साथ ऐसी धोखाधड़ी करना आपको शोभा देता है?”..मैं पूरी तरह उखड़ चुका था
“अरे!…नहीं-नहीं …तुम समझे नहीं…तुम जैसे कुछ खास गिने-चुने बन्दो के लिए डाइरैक्ट फैक्ट्री से ही खालिस माल मँगवा लूँगा “नेताजी मानों लीपापोती सी करते हुए बोले
“लेकिन वो तो काफी मँहगा पड़ेगा ना?”मैं भी अनजान बनने की कोशिश करता हुआ बोला…
“अरे यार!…ये सब मँहगा होता है तुम जैसों सिम्पल लोगों के लिए…हमारे लिए नहीं”…
“क्या मतलब?…दाम तो सबके लिए एक ही होता है…कोई भी खरीदे”…
“अरे!…नहीं रे..तुम लोगों के लिए देसी…देसी ही होता है और अपने लिए क्या ‘देसी’ और क्या विलायती?…सब बराबर”…
“क्या मतलब?…आपके लिए देसी और विलायती में कोई फर्क ही नहीं होता है”…
“बिल्कुल”…
“लेकिन कैसे?”मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था
“अरे यार!…डाइरैक्ट फैक्ट्री से ही निकल आता है अपना माल…बिना एक्साइज़ ड्यूटी के”नेताजी फुसफुसाते हुए से बोले
“ब्ब्…बिना एक्साइज़ ड्यूटी के?”..
“हाँ यार!…एक अफसर को जो अन्दर होने से बचा दिया था एक बार…..पट्ठा आज तक नहीं भूला…..फुल रिगार्ड करता है अपना …यारी जो हो गयी अपनी उसके साथ”…
“लेकिन यारी हर किसी की कहाँ हो सकती है?” मैँ उदास मन से बोला
“क्यों?…अगर कृष्ण और सुदामा की हो सकती है…मेरी और तुम्हारी हो सकती है…तो तुम्हारी..उसकी .. क्यों नहीं?”नेताजी मुझे हिकारत भरी नज़र से देखते हुए प्रतीत हुए…
गुस्सा तो इतना आ रहा था कि अभी के अभी मुँह तोड़ दूँ स्साले का लेकिन व्यावसायिक मजबूरी के चलते मुझे सिर्फ मनमसोस कर रह जाना पड़ा …ऊपर से अनजान बनते हुए बोला “कहाँ वो राजा भोज और कहाँ मैं गंगू तेली?”..
“अरे!..होने को तो सब कुछ हो सकता है….बस पैसा फैंको और तमाशा देखो”
“हम्म!…बात तो सही कह रहे हैं आप” मैँ ऐसे मुण्डी हिलाता हुआ बोला जैसे सब कुछ समझ आ गया हो लेकिन कुछ शंकाए मन में ग्लेशियर कि बर्फ की भाँति जम चुकी थी और उनके पिघले बिना मुझे चैन नहीं पड़ने वाला था …इसलिए बिना किसी लाग-लपेट के मैंने पूछ ही लिया कि…

“पिछली बार तो अपोज़ीशन वालों का ज़ोर था ना?…फिर आप और आपके साथी कैसे जीत गये?”..
“अरे!..ये ज़ोर-वोर सब बे-फिजूल…बे-मतलब की बातें हैँ इनका भारतीय राजनीति के पटल पे कोई मतलब नहीं..कोई स्थान नहीं”….
“क्या मतलब?….ये सब बेकार कि बातें हैं?..इनका असलियत से कोई सरोकार नहीं?”..
“बिल्कुल नहीं”…
?…?..?..?..?..
“असल मुद्दा ये नहीं होता कि किसका ज़ोर चल रहा है इलाक़े में?…असल मुद्दा ये होता है कि…तमाम धींगामुश्ती के बाद आखिर में जीता कौन?….और अंत में जीते तो हम ही थे ना?”नेताजी मेरा मुँह ताकते हुए बोले…
“ओह!..बात तो आप सोलह आने दुर्रस्त फरमा रहे है लेकिन ये कमाल आपने कैसे कर दिखाया?”मेरे चेहरे पे छायी उत्सुकता हटने का नाम नहीं ले रही थी
“अब यार!…तुम तो जानते ही हो कि अपुन को जवानी के दिनों से ही दण्ड पेलने का बड़ा शौक था”
“जी!…ये तो मोहल्ले का बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन उससे होता क्या है?”…
“सो!…दिन भर अखाडे में ही पडे रहते थे”….
“ओ.के”…
“बस!…वहीं अपनी यारी आठ-दस छटे हुए पहलवानों से हो गयी”…
“तो?”..
“उन्हीं का इस्तेमाल किया और  मार लिया मैदान”अपनी इस उपलब्धि से वशीभूत नेताजी गर्व से फूले नहीं समा रहे थे
“हुंह!…मैं नहीं मानता”….
“क्या मतलब?”…
“वो ‘एम.एल.ए’ का चुनाव था कोई ‘R.W.A’ का नहीं कि ज़रा सी उठा-पटक से मार लिया मैदान”…
“R.W.A?…माने?”…
“‘रेसिडेंट वेलफेयर असोशिएशन'”…
“मैं तुम्हारी बात का मतलब नहीं समझा”…
“महज़ आठ-दस पहलवानों से इतने बड़े इलैक्शन में भला किसी का क्या उखड़ा होगा?”चेहरे पे असमंजस के भाव लाता हुआ मैँ बोला
“गुड क्वेस्चन!…सही कह रहे हो…इतने बड़े इलैक्शन में आठ-दस सूरमाओं से तो किसी का बाल भी बांका नहीं होना था”…
“तो फिर?”…
“इन सबके भी अपने-अपने लिंक होते हैँ यार…उन्हीं के जरिए और भी मँगवा लिए पड़ोसी शहरों से ठेके पे…आखिर!…पड़ोसी भला किस दिन काम आएंगे?”…
“काम आएंगे?”…
“यार!…सीधा सा हिसाब है ….’इस हाथ दे और उस हाथ ले’ का.. जब उनको काम पड़ता है तो इन्हें बुलवा लिया जाता है और जब इन्हें ज़रूरत आन पड़ती है तो वो सर के बल दौड़े चले आते हैं”…
“ओह!..लेकिन आप तो कह रहे थी कि ठेके पे?”मेरे स्वर में असमंजस साफ़ दिखाई दे रहा था
“हाँ!…भय्यी हाँ…ठेके पे…अब घड़ी-घड़ी कौन हिसाब रखता फिरे कि….

  • कितनों की टांगे तोड़ी और कितनों के सर फ़ोड़े?…
  • कितनो को पीट-पाट के अस्पताल पहुँचाया? और …
  • कितनों को सरेआम शैंटी-फ्लैट किया?

“लेकिन इन सारे कामों में तो अलग-अलग महारथ के लोगों की आवश्यकता होती है…तो फिर रेट वगैरा कैसे फिक्स करते थे?”…
“हर काम का अलग-अलग रेट होता है जैसे…
टांग तोडने के इतने पैसे  और… मुँह तोडने के इतने पैसे’… हाथ-पैर अलग-अलग तोड़ने के और एक साथ तोड़ने के इतने पैसे …धमकाने के इतने पैसे वगैरा…वगैरा “
“और बूथ-कैप्चरिंग के और बोगस वोटिंग के ?”मैने सवाल दाग दिया
“ये की ना तुमने हम नेताओं जैसी बात…कहीं मेरी ही वाट लगाने का इरादा तो नहीं है?” ..
“ही…ही…ही….जी मेरी क्या औकात तो मैँ आपके सामने सैकण्ड भर को भी ठहर सकूँ”मैँ खिसियानी हँसी हँसता हुआ बोला
“हम्म!…फिर ठीक है”नेताजी का संतुष्ट जवाब…
“हाँ!…तो बात हो रही थी ‘बोगस वोटिंग’ और ‘बूथ कैप्चरिंग की”…
“जी”..
“तो यार…इन सब के लिए तो अलग से पैकेज देना पडता है कि…इस इलाके के लिए इतने खोखे और उस इलाके के लिये इतने खोखे”…
“ओह!…लेकिन उन्हें कैसे पता होता है की किस इलाक़े में कितने लुडकाने पड़ेंगे?..और किस इलाक़े में कितने?”..

“स्सालों ने पूरा सर्वे किया होता है कि फलाने इलाके में …इतने पटाखे फोडने पड़ेंगे और फलाने इलाके में इतने”…
“खोखे?” मेरा मुँह खुला का खुला ही रह गया…
“और तुम इसे क्या दस-बीस पेटी का खेल समझे बैठे थे?”…
“ज्जी!…
“अरे!…पच्चीस-पचास से तो मेरे ‘पी.ए’ की भी दाढ गीली नहीं होती है तो अपना तो सवाल ही पैदा नहीं होता”
“ओह!…
अब मुझे हर तरफ खोखे ही खोखे दिखाई दे रहे थे…दिल रह-रह कर ख्वाब देखने लगा था कि…कब मैं छूटूँ और कब कूद पड़ूँ मैँ भी इस खेल में?…
आखिर!…खोखों का सवाल जो था..
***राजीव तनेजा***

Rajiv Taneja
Delhi(India)
http://hansteraho.blogspot.com
rajivtaneja2004@gmail.com
+919810821361
+919213766753

+919136159706

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