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दोस्त-दोस्त ना रहा – राजीव तनेजा

हंसी ठट्ठा
हंसी ठट्ठा
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“दोस्त-दोस्त ना रहा…प्यार-प्यार ना रहा….ऐ ज़िन्दगी हमें तेरा एतबार ना रहा”
आज टी.वी पर ‘संगम’ फिल्म का ये गीत ना चाहते हुए भी बार-बार मुझे पुरानी यादों की तरफ पुन: लौटाए लिए जा रहा था…
ऐ मेरे प्यारे दोस्त…मैँ तुझे कहाँ ढूँढू?…कैसे ढूँढू? …प्लीज़!…लौट आ…तू लौट आ…
सब मेरी ही गलती है…सब मेरी ही कमी है…मुझे ही संयम से काम लेना चाहिए था। आखिर!…इसमें गलती ही क्या थी उसकी? सरल मानवीय इच्छाओं के विकेन्द्रीयकरण से वशीभूत हो के ही तो उसने ऐसा किया था…उसकी जगह अगर कोई और ये सब करता तो क्या तब भी मैँ इतना ही क्रोधित होता?…इतना विचलित होता?…शायद नहीं….
ध्यान बरबस पुरानी यादों की तरफ जाता जा रहा था…बात कुछ ज़्यादा पुरानी नहीं…बस!…कुछ ही साल तो हुए थे इस बात को…जब मैँने नया-नया लिखना शुरू किया था। इसी चीज़ का ही तो गुस्सा था ना मुझे कि वो मेरी कहानियों को नहीं पढता है?…उन पर कमैंट नहीं करता है…उलटा मेरा उपहास उड़ा…मुझे इग्नोर करने की कोशिश करता है?…जब भी कुछ दो पढने के लिए तो पहले यही सवाल कि…
“दिन-रात इतनी मगजमारी करते हो…कुछ मिलता भी है इससे?”…
“अरे!..नहीं मिलता तो ना मिले..कौन सा तुम्हारे घर की चक्की का पिसा आटा खा रहा हूँ?”…
लेकिन नहीं!..कीड़ा जो है दूसरे के फटे में टाँग अड़ाने का…सो!..बिना अड़ाए चैन कहाँ मिलने वाला था  हुज़ूर को?….लेकिन सिर्फ इस अकेले को ही क्यों दोष दूँ?…बाकी दोस्त भी कौन सा दूध के धुले थे? जब भी मैँ उन्हें जोश में आ गर्व से बताता कि इस फलानी-फलानी कहानी को मैँने लगातार आठ घंटे तक कांटीन्यूअसली लिख कर पूरा किया है तो वो ऊपर से नीचे तक मुझे ऐसे देखते मानों मैँ किसी अजायबघर में रखने वाली चीज़ होऊँ । मेरे हाथ में कोरा सफा देख के भी ऐसे बिदकते थे जैसे किसी मदमस्त घोड़ी को देख कर  कोई तृप्त घोड़ा बिदकता है। दूर से ही कन्नी काटने लगे थे सब के सब। ये तो मैँ ही था जो लेखन के प्रति अपने जीवट और ज़ुनून के चलते कभी-कभार लपक के उन्हें पकड़ने में कामयाब हो जाया करता था। वैसे!…सच कहूँ तो  ज़्यादातर मामलों में वो खिसक कर नौ दो ग्यारह होने में ही अपनी भलाई समझते थे।
सच ही तो है आजकल कोई किसी का यार नहीं….दोस्त नहीं। सब के सब स्साले!…मतलबी इनसान…सामने कुछ और पीठ पीछे कुछ। हत्थे चढ जाने पर मेरी ऊटपटांग कहाँनियों और मेल्ज़ की मेरे सामने तो जी भर के तारीफ करते और पीठ पीछे?…पीठ पीछे बेधड़क हो के उन्हें बिना चैक किए ही डिलीट मार डालते।
वाह!…रे दोस्तो…वाह…खूब दोस्ती निभा रहे हो…वाह
बेशर्म हो के कभी पूछ लो तो….”यार!..अच्छी थी…बहुत अच्छी लेकिन याद नहीं 🙁 …सब की सब मिक्स हो गई हैँ”….
“याद नहीं?…या पढी ही नहीं?”…
वैसे उनका भी क्या कसूर? आखिर!…वो भी तो तंग आ चुके थे ना इस सब से? उनकी मेल आई.डी…जंक मेल्ज़ का अड्डा जो बन चुकी थी मेरी वजह से। दरअसल!…हुआ क्या कि कुछ ज़रूरत से ज़्यादा समझदार इनसानो ने पकी-पकायी खाने की सोची और डाईरैक्ट ही कापी-पेस्ट कर डाली मेरी मेलिंग लिस्ट। सोचा होगा कि अब कौन कम्बख्त एक-एक ग्राहक ढूंढता फिरे गली-गली कि…
“अल्लाह के नाम पे….मौला के नाम पे….ऊपरवाले के नाम पे….कोई तो मेरी पोस्ट ‘पढ लो बाबा”…
“बस!…एक-दो किस्से-कहानियों से सजी छोटी सी पोस्ट का ही तो सवाल है बाबा”…
ये तो वही बात हुई कि करे कोई और….भरे कोई। पंगा लिया दूसरों ने और गाज धड़ाधड़ मुझ पर गिरने लगी…सब के सब? दूर भागने लगे थे मुझसे। नौकरी अपनी कभी लगी नहीं और धन्धा करने का कभी सोचा नहीं…इसलिए अपने पास लिखने-लिखाने के अलावा और कोई काम तो होता नहीं था कि मैँ उस में व्यस्त हो अपने वारे-न्यारे करता फिरूँ। और फिर अपनी कोई गर्ल फ्रैंड…माशूका या रखैल तो थी नहीं कि मैँ दिन-रात उसी में व्यस्त हो मस्त रहूँ इसलिए सबको हमेशा मेल भेज-भेज कि उनकी प्रतिक्रिया वगैरा माँगता रहता था अपनी कहानियों और लेखों के बारे में। पहले तो मज़े-मज़े में सब यही कहते कि…

“आपकी कहानियाँ बडी ही ‘फन्नी’ होती हैँ”…
“अरे!…जब ऊपरवाले ने अपुन का चौखटा ‘फन्नी’ बनाने में कोई कसर नहीं छोडी तो मैँ भला कौन होता हूँ अपनी कहानियों को ‘फन्नी’ बनाने से रोकने वाला?” …
जो मिलता…जैसा मिलता…तुरंत ऎड कर डालता उसे अपनी याहू की मैसेंजर लिस्ट में। अब!…अपुन ठहरे पूरे के पूरे चेपू किस्म के इंसान…अपने को तो बस एक मौका चाहिए…फिर पीछा कौन कम्बख्त छोड़ता है?
सो!…तंग आ के किसी ने ऑफ-लाईन रहना शुरू कर दिया तो किसी ने इगनोर मारना। कुछ तो स्साले इस हद तक भी गिर गये कि सीधे-सीधे ब्लैक लिस्ट ही कर डाला कि सारा का सारा टंटा ही खत्म।  खेल खत्म और पैसा हज़म…अपुन रह गये फिर वैसे के वैसे …ठन-ठन गोपाल। सही कहा है किसी नेक बन्दे ने कि….खाली बैठे आदमी का दिमाग शैतान का होता है और अपुन तो पूरे के पूरे सोलह-आने फिट बैठते थे इस बात पर। सो!…एक दिन फटाक से अपुन के भेजे में एक कमाल का आईडिया भेज डाला ऊपरवाले ने।
“वाह!…क्या आईडिया था?… वाह….वाह”…
जी तो चाह रहा था कि किसी तरीके से अपनी गरदन ही लम्बी कर डालूं और खुद ही चूम डालूँ अपना खुराफाती दिमाग…अब कोई और तो अपनी तारीफ करने से रहा इस मतलबी ज़माने में तो खुद ही मियाँ मिट्ठू बनने में क्या बुराई है?

वाह-वाह!… क्या दिमाग पाया है….वाह-वाह…
“सुभान अल्लाह”…
अब आव देखा ना ताव और बना डाली दो-चार ‘फेक आई.डी’ कि अब देखता हूँ कि कैसे सब मुझे इग्नोर मारते हैँ? अब सब्र कहाँ था मुझे? और रुकना भी कौन कम्बख्त चाहता था? सो!…सीधा टपक पड़ा इग्नोर मारने वालों पर कि…
“लो स्सालो!…ऐड का इंवीटेशन इधर से भी और उधर से भी…थप्पाक…थप्पाक”…

“देखता हूँ बच्चू!…कैसे बच निकलते हो मेरे इस मकड़जाल से?”
लेकिन अफ्सोस!…बात कुछ जम नहीं रही थी….ऐरे-गैरे…नत्थू-खैरे तो कूद-कूद के ऐसे रिप्लाई देने लगे
जैसे मुझसे गले मिले बिना उनका बदन अकड़े जा रहा था। ऐँठन नही छूट रही थी प्यार भरी झप्पी के बिना।सब के सब मिलने को बेताब हो उठे थे स्साले लेकिन…जिसका मुझे था इंतज़ार…वो घड़ी नहीं आयी। अरे यार!..लड़कियोँ की बात कर रहा हूँ…और भला मुझे किसका इंतज़ार होना था? पता नहीं इन कम्बख्तमारियों को मुझसे क्या ऐलर्जी है मुझसे? बड़ा ही पुट्ठा उसूल जो बना डाला है खुद के लिये कि…
ये खुद तो जिसे चाहेँ अपनी मर्ज़ी से जोड़ डालें अपनी लिस्ट में लेकिन इनकी खुद की मर्ज़ी के बिना कोई परिन्दा भी अपने पर ना फड़फड़ा सके इनके इलाके में । सही कहा है किसी बन्दे ने कि …
“कहने से कुम्हार गधे पर नहीं चढा करता”

इसलिए तंग आ के मैँने सोचा कि अब ये खुद तो घास डालने से रही मुझे…सो!..अपने चारे का खुद इंतज़ाम करने में ही अपनी भलाई है वैसे भी कभी किसी किताब में पढा था कभी कि…अपना हाथ…जगन्नाथ …याने के अपना काम स्वंय करो। सो!..ये सोच मेरे खुराफाती दिमाग ने करवट ली और एक और फेक आई.डी बना डाली। आफकोर्स!…इस बार किसी लड़की के नाम से।
बिना इस्तेमाल किये पड़ी ही कई दिनो तक मानो किसी शुभ महूरत का इन्तज़ार था उसे । ऊपरवाले की दया से एक दिन वो शुभ घडी आ ही गयी और निकल पडा महूरत। दरअसल!…हुया क्या कि एक दिन अपने एक लंगोटिया यार से फोन पर बात करते-करते मैने कुछ हवाई फायर कर डाले कि….
“अपनी तो निकल पड़ी…मुझ पर तो कई लड़कियाँ मर मिटी हैँ…फुल्लटू फिदा हैँ मेरी लेखनी पर”

दोस्त को मानो यकीन ही नहीं हुआ…ताना मारते हुए बोला “लडकी?….और तुम पे?”
“हाँ-हाँ!…क्यों नहीं?” मेरा संयत सा संक्षिप्त जवाब था…
“हुँह!…किसी एक की ‘आई डी’ तो बताओ ज़रा”
“आखिर!…पता तो चले कि कितने पानी में हैँ हुज़ूर”
मेरे दिल में ना जाने क्या आया और मैँने झट से अपनी वही फेक वाली आ.डी थमा दी उसे । बस!…फिर क्या था जनाब?…जो ऑफलाईन पे ऑफलाईन टपकने चालू हुए कि बस टपकते ही चले गए ।शुरू-शुरू में तो मैँ इग्नोर मारता रहा लेकिन बाद में ना जाने क्या शरारत सूझी कि मैँने भी पंगे लेने शुरू कर दिए।  अब उस से रोज़ ऐसे चैट करता जैसे मैँ कोई लड़की हूँ और किसी दूसरे शहर से उनके शहर में रहने के लिये नई-नई आई हूँ। फोटो तो मैँ पहले ही किसी और की चिपका चुका था अपने इस प्रोफाईल के साथ…पता नहीं किसकी फोटो थी लेकिन जो भी थी…थी बड़ी ही झकास ।यूँ समझ लो कि पूरी बम थी बम वो भी कोई ऐसा-वैसा…लोकल सा सुतली बम नहीं बल्कि गोला बम वो मुर्गाछाप का। अब!…दोस्त ठहरा आदमज़ात….लार टपक पड़ी उसकी…पटाने के चक्कर में लग गया। मैँ लाईन क्लीयर दूँ और वो ना पटे?…ऐसी सोच भी भला कोई कैसे सोच सकता था? खूब मज़े आ रहे थे उससे गुफ्तगू करने में लेकिन हद तो तब हो गयी जब वो स्साला!..हराम का जना…मेरा ही पत्ता काटने की फिराक में लग गया।
वही हुआ जिसका मुझे अन्देशा था….एक दिन बेशर्म हो उसने कह ही दिया कि….

“तुम्हें इस ‘राजीव’ से घटिया इंसान नहीं मिला पूरे मकड़जाल में जो इस नामुराद से दोस्ती कर बैठी?”…
“मैँने कहा…“क्यों?…क्या कमी है उसमें?….इतना हैण्डसम तो है”…
“बस!…यहीं…यहीं तो धोखा खा जाती हैँ सब उससे”…
“क्क्या मतलब?…मतलब क्या है आपका?”…
“है तो वो 50 के आस-पास लेकिन पिछले सात साल से वो सभी लड़कियों को अपनी उम्र ’30+’ ही बताता चला आ रहा है”…
“और उस से पहले?”…
“20 +”
क्या?”…
“और हिम्मत तो देखो उस मरदूद की…फोटो भी अपनी बीस साल पुरानी वाली दिखाता है”
“क्या?…क्या कह रहे हो तुम?”…
“असल में उसके आठ बच्चे हैँ”…
“आठ?” मैँ कुछ चौंकता हुआ सा बोला
“और नहीं तो क्या साठ?”…
“?…?…?…?…?”…
“जी हाँ!…पूरे आठ…आठ बच्चे हैँ उसके..गोया…बच्चे ना हुए…पूरी पलटन हो गयी”…
“ओह!…लेकिन वो तो सिर्फ दो ही बता रहा था”
“एक नम्बर का झूठा है स्साला”..
“एक मिनट!..सब आ गया समझ..
“?…?…?…?”…
“हम्म!..तो जनाब..नयी वाली से दो बता रहे होंगे”…
“नयी वाली से?” मैँ हैरान-परेशान होता हुआ बोला
“जी हाँ!..नयी वाली से…बाकी सब गोल कर दिए होंगे जनाब ने”…

“श्शायद”….
“तो क्या उसने इस बारे में आपको कुछ नहीं बताया?” अचरज भरे शब्दों में टाईप किया गया
“नहीं तो”मैँ अनजान बनता हुआ बोला…
“ओह!…
“आखिर बात क्या है?”….
“क्कुछ नहीं!…कुछ खास नहीं”…
“फिर भी!…पता तो चले”….
“कहा ना…कि कुछ नहीं”..
“नहीं!..तुम कुछ छिपा रहे हो….बताओ ना…प्लीज़…तुम्हें हमारी नयी-नयी दोस्ती का वास्ता”…
“अब जब आप इतना रिक्वैस्ट कर रही हैँ तो बताए देता हूँ लेकिन प्लीज़!…मेरा नाम नहीं लेना…बुरा मान जाएगा… जिगरी दोस्त है मेरा”…
“जी”…
“बरसों की दोस्ती पल भर में ना टूट जाए कहीं” दोस्त भावुक होता हुआ बोला
“अरे यार!…इतनी बुद्धू भी नहीं हूँ कि ये भी ना जानूँ कि कौन सी बात कहनी है और कौन सी नहीं? “मैने समझदारी से काम लेते हुए कहा
“पहले वाली तो उसे छोड़ भाग खडी हुई थी ना ड्राईवर के साथ”…
मैँ सन्न रह गया … अब तक तो मैँ सारी बात मज़ाक-मज़ाक में ही ले रहा था लेकिन ये उल्लू का पट्ठा तो एक साँस में बिना रुके ऐसे झूठ पे झूठ बोले चला जा रहा था मानो ‘बुश’ के बाद इसी का नम्बर हो।
पता नहीं कौन सा मैडल मिल जाना था  या कौन सी फीतियाँ लग जानी थी उसके कँधे पे ये सब बोल-बोल के। जी तो चाहता था कि एक ही घूंसे में सबक सिखा दूँ पट्ठे को लेकिन चाहकर भी कुछ कर नहीं पा रहा था मैँ …पोल खुलने का डर जो था। सो!…चुप लगाना ही ठीक समझा मैँने लेकिन मैँ भी तो आखिर इनसान हूँ इसलिए अपने गुस्से पर बरसक काबू पाते हुए मैने बड़े ही प्यार से तिलमिलाते हुए पूछा “आखिर!…वो इसे छोड़ कर गयी ही क्यों?”

“अब ये तो ऊपरवाला ही जाने कि क्या चक्कर था और क्या नहीं लेकिन कुछ ना कुछ कमी तो ज़रूर रही होगी इसमें”…
“लेकिन..
“अब अगर रोज़-रोज़ कोठे पे जाएगा तो बीवी भी तो कहीं ना कहीं तो मुँह काला करेगी ही ना?”
“क्या उसके कुछ अरमान नहीं हो सकते? …और आखिर क्या नाजायज़ ही क्या था इसमें?”
मेरा गुस्सा हर पल आपे से बाहर होता जा रहा था लेकिन वो बेशर्म चुप होने के बजाए नये-नये…इल्ज़ाम पे इल्ज़ाम थोपे चला जा रहा था मुझ पे
“ये तो उसकी जुए की लत छुड़वा दी मैने वर्ना…कब का बे-भाव बिक गया होता बीच बाज़ार में”
“ओह!…तो क्या जुआ भी खेलता है?”
“और नहीं तो क्या?…एक नम्बर का जुआरी है स्साला…एक नम्बर का”…
“ओह!…
“एक दिन तो उसने दारू के नशे में…
“अब ये ना कहना कि तुम्हें दारू के बारे में कुछ भी नहीं पता”…
“सच्ची!…कसम से….नहीं पता”….
“बिलकुल नहीं पता?”….
“नहीं पता”…
“मेरी कसम खाओ”…
“तुम्हारी कसम…मुझे कुछ नहीं पता”…
“कुछ सही भी बताया है उसने?…या सब का सब झूठ?”
मैने अनजान बनते हुए साफ मना कर दिया कि … “मुझे कुछ भी नहीं मालुम”
“हद है!….पता नहीं इतना झूठ कैसे बोल लेते हैँ लोग?…. और वो भी एक भोली-भाली लड़की से”….
“राम!….राम..घोर कलयुग…शराफत का तो ज़माना ही नहीं रहा”
“पता नहीं इस गाँधी-नेहरू के देश को क्या होता जा रहा है?” …
“क्या यही शिक्षा दी थी हमारे कर्णधारों ने?”…
“तुम दारू पीने की बात कर रहे थे?”…
“अब छोडो यार!….दोस्त है मेरा…समझा करो”…
“सब समझ रही हूँ मैँ”…
“यार!..तुम तो ऐसे ही बुरा मान रही हो..कल को अगर उसे पता चल गया कि मैँने ही उसकी पोल-पट्टी खोली है तुम्हारे सामने तो मैँ क्या मुँह दिखाऊँगा उसे?…बुरा ना बन जाउंगा दोस्त की नज़र में?” …
“कैसे पता चलेगा उसे?..मैँ तुम्हारा नाम थोड़े ही लूँगी उसके आगे?”…
“प्रामिस?”…
“गॉड प्रामिस”…
“बस एक दिन ऐसे बैठे-बिठाए खुद…अपनी ही बीवी को हार बैठा जुए में”…
“क्या?”….
“ये तो शुक्र है ऊपरवाले का कि सामने जीतने वाला मैँ ही था…. सो!..बक्श दिया”…
“ओह!..आपकी जगह कोई और होता तो उसने तो सरेआम जलूस निकाल देना था”मैँ मासूम स्वर में बोला..
“और नहीं तो क्या?”दोस्त के शब्दों में गर्वाहट आ चुकी थी
“यार!…तुमसे एक बात कहनी थी…अगर बुरा ना मानें तो”दोस्त कुछ सकुचाहट भरे शब्दों में बोला….

“जी!…कहें?”…
“जब से आपसे ‘चैट’ करने लगा हूँ….पता नही क्या होता जा रहा है मुझे”….
“ना दिन को चैन और ना ही रात को आराम?” …
“जी!…बिलकुल…आपने कैसे जाना?”…
“यही हालत तो मेरी भी है बुद्धू”….
“सच?”…
“और नहीं तो क्या झूठ?”…
“हर वक़्त बस आपका ही सुरूर सा छाया रहता है दिल में”…
“और मेरे दिल की हालत तो पूछो….लाखों लड़कों के साथ मैँने हर तरह की बातें की लेकिन पहले कभी ऐसा नहीं लगा कि….
“लगा कि?”….
“छोड़ो ना!…मुझे शर्म आती है”…
“पगली!..मुझसे कैसी शर्म?…बताओ ना कि कैसा लगा?”…
“मुझे ऐसा लगा कि जैसे हम पिछले जन्म के बिछुड़े हुए प्रेमी हैँ और…..
“इस जन्म में हमारा फिर से मिलन हो रहा है?”…
“जी”…
मेरे इतना लिखते ही उस कमीने की तो बाँछे खिल उठी…सारी हदें लाँघता हुआ….सारी दिवारें फाँदता हुआ’… सारी लक्ष्मण रेखाएँ पार करता हुआ एकदम से बोल पड़ा…
“अच्छा!…फिर एक पप्पी दो ना”…

“नहीं”
“प्लीज़!…
“नहीं!..कहा ना..अभी नहीं”…
“अच्छा बाबा!…बस एक छोटी सी….प्यारी सी ‘किस्सी’ ही दे दो…ऊम..म्म्म.ऊय्या .. ह्ह”
“नहीं!..कभी नहीं….
“प्लीज़!…
“मतलब ही नहीं पैदा होता”…मैँ सकपका चुका था….
उसकी बातें सुन जी मिचलाने को हो रहा था….मुँह बकबका सा होकर रह गया। हाँ!…अगर सामने लड़की होती…तो और बात होती…फिर तो कोई पागल ही मना करता लेकिन…पप्पी…वो भी एक लडके को”..
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“क्या मैँ तुम्हें अच्छा नहीं लगता?”…
“नहीं!…ये बात नहीं है जानूँ…अच्छे तो तुम मुझे बहुत लगते हो”….
“तो फिर क्या बात है?”..
“कुछ नहीं”…
“फिर ऐसे रूडली क्यों बिहेव कर रही हो मुझसे?” दोस्त कुछ रुआँसा सा होता हुआ बोला
“रूडली कहाँ?…मैँ तो बड़े प्यार से तुमसे बात कर रही हूँ”…
“नहीं!..तुम गुस्से से बात कर रही हो”…
“अरे नहीं बाबा…प्यार से ही बात कर रही हूँ…तुम समझ नहीं रहे हो”…
“नहीं!…अगर प्यार से बात कर रही होती तो एक छोटी सी ‘पप्पी’ …प्यारी सी ‘किस्सी’ देने के लिए इनकार नहीं करती”…
“समझा करो बाबा!…अभी मूड नहीं है”मैँ तिलमिला कर दाँत पीसता हुआ उसे समझाने की कोशिश कर रहा था..
“लेकिन मैँ तो पूरा मूड बना चुका हूँ…उसका क्या करूँ?”…
“तो फिर जा के अपनी माँ की चुम्मी ले ले”..
“क्क्या?…क्या बकवास कर रही हो?”…
“बकवास मैँ नहीं बल्कि तू कर रहा है स्साले”…
क्या मतलब?…मतलब क्या है तुम्हारा?”…
“मेरा मतलब ये है बेटे बनवारीलाल कि अपनी जिस फूफी से तू अभी तक चैट कर रहा था ना…वो स्साले!…कोई लड़की-वड़की नहीं बल्कि मैँ खुद…पूरा का पूरा…खालिस-शुद्ध…एकदम एकदम असली का राजीव हूँ”….
“झूठ!…बिलकुल झूठ…मैँ नहीं मानता”…
“तेरे मानने या नहीं मानने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला…मुझे झेलने की है हिम्मत तुझमें …तो बोल…मैँ वैब कैम ऑन करता हूँ”…
बस!…वो दिन है और आज का दिन है जनाब…वो ऐसे गायब हुआ  जैसे गधे के सर से सींग। उसके बाद कभी ऑनलाईन ही नहीं हुआ और और होता भी किस मुँह से? लेकिन इधर अब समय बीतने के साथ मैने अपना मन बदल लिया है.. सब गिले-शिकवे भूल मैँ उसी की बाट जोह रहा हूँ। बरसों पुरानी दोस्ती को यूँ ही छोटी-छोटी बातों पर खत्म करना ठीक नहीं।  ऐसा भी क्या गलत किया उसने? अगर उसकी जगह मैँ होता तो क्या मैँ भी यही सब ना करता?… सच पूछिए तो आत्मग्लानी से भर उठा हूँ मैँ। मुझे अपने गुस्से पे काबू रखना चाहिए था। हद होती है यार गुस्से की भी…इतनी जल्दी आपा नहीं खोना चाहिए था मुझे। इस गुस्से ने तो बड़े-बड़ों को बरबाद कर के रख दिया…मैँ चीज़ ही क्या हूँ? अब तो बस सारा-सारा दिन उसी के इंतज़ार में क्म्प्यूटर के आगे बैठा रहता हूँ कि शायद!…वो भी कभी…किसी घड़ी ऑनलाईन मिल जाए और मेरे गुनाह…मेरे पाप धुल सकें और मैँ उस से बस यही एक बात कह सकूँ कि…..
“ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे ….तोड़ेंगे उम्र भर…तेरा साथ ना छोड़ेंगे…ये दोस्ती….
अब तो बस एक ही तमन्ना बची है दिल में कि…या तो वो मुझे मिल जाए जिसे मैँ बेवाकूफी की वजह से खो चुका हूँ या फिर मुझे मुक्ति मिल जाए मुझे इस नारकीय जीवन से।  “आखिर!…क्या फर्क पड़ जाता अगर वो मेरी एक…ज़रा सी ‘किस्सी’ले लेता?”
“अच्छा या बुरा सही…लड़की नहीं तो…..लड़का ही सही”…
“बस!…काम चलना चाहिये…चलता रहना चाहिए”
“जय हिन्द”
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
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