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***राजीव तनेजा***
“लो कर लो बात..पहले तो आप खुद ही मुझे इस कोर्ट-कचहरी के झमेले में घसीट लाए और अब आपको ही डर लग रहा है कि माननीय अदालत में जज साहिबा के एक महिला होने के कारण आपके साथ इंसाफ नहीं होगा”…
“चलो!…मानी आपकी बात कि कभी-कभी हमदर्दी या फिर जाति भेद के चलते माननीय न्यायधीशों से कुछ गल्तियाँ भी हो जाती हैँ लेकिन ऐसी अनोखी और विरली घटनाएँ तो यदा-कदा सावन के महीने में ही घटा करती हैँ”
“बाकि ज़्यादातर केसों में तो पैसो का लँबा-चौड़ा हेर-फेर ही इस सब के पीछे असली कारण..असली वजह होता है”
“क्या कहा?…आपको विश्वास नहीं है हमारी न्याय प्रणाली पर और आपको शुबह है कि फैसला आपके हक में नहीं बल्कि मेरे हक में होगा?”
“अगर यही सब सोच के पहले ही अदालत के बाहर फैसला कर लिया होता तो आज आपको यूँ शर्मिन्दा हो सर तो ना झुकाना पड़ता”…
“ठीक है!…अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है…इस केस-कास के चक्कर को रहने ही देते हैँ”…
“आप भी क्या याद करेंगे कि सुबह-सुबह किसी दिलदार से पाला पड़ा है”..
“चलो!…हम कोर्ट के बजाय यहीं…बाहर…खुले में ही बैठ के आराम से……इत्मीनान से अपने सारे विवाद…सारे फसाद सुलझा लेते हैँ”…
“वैसे भी हम लड़कियाँ!…नफरत और दुश्मनी में नहीं बल्कि प्यार और मोहब्बत में यकीन करती हैँ”…
“ऊपरवाले ने इस सब का सन्देश देने के लिए ही हमें इस निष्ठुर धरती पे भेजा है”…
“वैसे ये और बात है कि ज़्यादातर झगड़े…ज़्यादातर फसाद भी हमारी ही वजह से होते हैँ”…
“खैर!…अपवाद कहाँ नहीं है?…इन्हें छोड़ असल मुद्दे पे आते हुए हम काम की बात करते हैँ”…
“लो!…चलो मैँने तो सब कुछ आप पर ही छोड़ दिया….आप खुद शिकायतकर्ता…आप ही मुवक्किल…और खुद आप ही माननीय दण्डाधिकारी”….
“अब खुश?”…
“मेरे ख्याल से यही ठीक भी रहेगा”…
“तो फिर शुरू करें मुकदमा?”….
“ओ.के”.…
“एक मिनट!…बीच में टोकने के लिए मॉफी चाहूँगी लेकिन ये आपसे किस गधे ने कह दिया कि उल्लू टेढा होता है?…ध्यान से देखा जाए तो सही मायने में टेढा तो ‘कुरकुरे’ होता है”….
“सभी टुकड़े टेढे…एकदम टेढे ना निकलें तो बेशक मेरा नाम ‘चालू चिड़िया’ से बदल के ‘चालू’ कबूतरी’ रख देना”…
“मैँ!…उफ तक ना करूँगी”…
“और हाँ…याद आया!…पहले तो आप मुझे साफ-साफ ..एकदम क्लीयर शब्दों में समझाएँ कि ये ‘चालू चिड़िया’ आखिर होती क्या है?”…
“हद है आप लोग भी”….
“अच्छी भली दो-दो सुरमई…काजल भरी…कजरारी आँखों के होते हुए भी दिन-दहाड़े जानबूझ कर अँधे बने बैठे हैँ”…”
“मज़ा आता है ना आपको इस सब में?
“सच-सच बताएँ कि क्या आपने मुझे कभी पँख फैला उड़ते देखा है?”…
“नहीं ना?”…
“तो फिर मैँ चिड़िया कैसे हो गई?”…
“क्या आपने मुझे मोटर की तरह ढुर्र ढुर्र कर के कभी ‘चालू’ …तो कभी ढ़ुप्प ढ़ुप्प कर के बन्द होते हुए देखा है?”…
“नहीं ना?”…
“क्या मेरे ये दोनों हाथ…..हाथ नहीं…पँख हैँ?”…
“नहीं ना?”…
“मेरे तीनों ही सवालों के जवाब में आपने नकारत्मक उत्तर दिया है”..
“नहीं!…किसी और सफाई की ज़रूरत नहीं है”….
“आप खुद ही अपने दिमाग पे ज़ोर डाल उसे अच्छी तरह झकझकोरें और मुझे ये साफ-साफ बताएँ कि किस कोण या ऐंगल से मैँ आपको कोई पँछी या जानवर दिखती हूँ?”….
“क्या हुआ?”…
“बोलती क्यूँ बन्द हो गई?”…
“अगर कोई जवाब नहीं है आपके पास मेरी बात का तो फिर ऐसे ही…बेफाल्तू में क्या किसी अबला का …किसी बेसहारा नारी का यूँ अपमान करना आपको शोभा देता है?”…
“मैँ भी आप ही की तरह जीती-जागती ज़िन्दा इनसान हूँ कोई खिलौना नहीं कि जब जी चाहा खेल लिया और जब जी चाहा पलट के मुँह फेर लिया”
“क्या यही सिखाया है?…आपको आपके सभ्य होते समाज ने कि किसी असहाय अबला…किसी निर्बल नारी का यूँ ही मज़ाक उड़ा उसे ‘चालू चिड़िया…चालू चिड़िया’ कह सरेआम अपमानित करो”
“वो भी बिना किसी ठोस कारण या वजह के”
“प्लीज़!…एक रिकवैस्ट है मेरी आपसे कि आप मुझे या तो ‘चालू’ कह लें या फिर सिर्फ ‘चिड़िया’ ही कह कर पुकार लें”…
“एक साथ दो-दो तोहमतों के बोझ को मैँ अकेली अबला नारी झेल नहीं पाऊँगी और दुखी हो टूट जाऊँगी…बिखर जाऊँगी”…
“अगर आप मेरी इस विनती को स्वीकारें तो ठीक और ना स्वीकारें तो भी ठीक”…
“मुझे परवाह नहीं”…
“दरअसल में मैँ खुद अपने ऊपर लगे हुए इस लेबल को…इस ठप्पे को भरपूर एंजाय करती हूँ और इसे पसन्द भी करती हूँ”…
“लेकिन वो कहते हैँ ना कि लाज और शर्म औरत का गहना होता है…इसलिए मैँ आपसे इतना सब कहने का ड्रामा कर रही थी”…
“समझे कि नहीं?”..
“चलो!..मैँ आप पर ही छोड़ती हूँ”…
“अब आप ही बताओ कि क्या निस्वार्थ भाव से किसी का मनोरंजन कर उसे खुश करना ..प्रसन्न रखना गुनाह है?…पाप है?”
“अगर ये सब गुनाह है…पाप है तो हम ‘चालू लड़कियाँ’ प्रण लेती हैँ कि ये गुनाह..ये पाप हम हर रोज़ करेंगी…बार बार करेंगी”
“है आप में हिम्मत तो हमें रोक के दिखाओ”…
“चैलैंज है मेरा कि कुछ नहीं बिगाड़ पाओगे तुम हमारा क्योंकि मशहूर शायर ‘गालिब’ की ‘चची जान’ भी तो कह गई हैँ कि …
“हम को मिटा सके…ये लड़कों में दम नहीं”…
“लड़के हम से हैँ…..हम लड़कों से नहीं”
“अरे!…हमें रोकने से….हमें मिटाने से पहले ही आप में से ही बहुत से लोग पाला बदल हमारी तरफ…हमारे फेवर में…हमारा साथ देने को आ खड़े होंगे”
“यकीन नहीं है तो बेशक!…आज़मा के देख लो”…
“कोशिश कर के देख ले….नदियाँ सारी…पर्वत सारे”ड्रामैटिकल अंदाज़ मे एक दूजे के लिए फिल्म का गीत गाते हुए
“बेशक हमारे पँख नहीं है और हम खुले आसमान में ऊँचा उड़ नहीं सकती हैँ”…
“ऐक्चुअली हम ऊँचा क्या?…हम तो बिलकुल ही नहीं उड़ सकती हैँ लेकिन अब ‘ऊँचा उड़ना’ मुहावरा बन गया तो बन गया”…
“इसमें आप या मैँ भला कर ही क्या सकते हैँ?…लेकिन भगवान को हाज़िर-नाज़िर मान कर मैँ इतना ज़रूर कहना चाहूँगी कि शुरू से ही हम में ऊँची..बहुत ऊँची उड़ान उड़ने की तमन्ना रहा करती थी””
“बेशक!…हमारे पँख नहीं है”…
“तो क्या हुआ?…कोई ज़रूरी तो नहीं कि ऊँची उड़ान उड़ने के लिए पँख लाज़मी हों”…
“क्या बिल गेट्स या अंबानियों को या फिर टाटा-बिड़ला के पँख है?”…
“नहीं ना?”…
“लेकिन फिर भी देखो कितनी ऊँची उड़ान उड़े चले जा रहे हैँ”…
“अब इस लक्ष्मी मित्तल को ही लो…विदेश में रहते हुए भी इसने भारत के नाम का डंका पूरे विश्व भर में बजा दिया”…
“विश्व का सबसे बड़ा…सबसे आलीशान बँगला भी तो इसी के नाम है”…
“तो…. आखिर! आपको इसमें दिक्कत ही क्या है?”….
“हमारा बदन है….हम चाहे इसका जो भी करें”…
“हमारी मर्ज़ी…हम कुछ पहनें या ना पहनें”
“इसमें आपको क्या तकलीफ?”…
“फॉर यूअर काईंड इंफॉरमेशन!..जिन कपड़ों में हम खुद को कंम्फर्टेबल फील करती हैँ…वही पहनती हैँ”…
“और वैसे भी ये कौन सी पोथी या ग्रंथ में लिखा है कि लड़कों के साथ हँसी-मज़ाक करना गुनाह है….पाप है?”…
“या कानून की ही कौन सी धारा हमें तंग कपड़े पहनने-ओढने से प्रतिबन्धित करती है?”…
“आप अपना रोना रोते हो लेकिन कोई ये नहीं देखता कि हम जिस किसी से थोड़ा-बहुत खुल के हँस-बोल लेती हैँ…
मुस्कुरा के घड़ी दो घड़ी बात कर लेती है…वही हमें अपनी अपनी प्रापर्टी…अपनी जायदाद समझ हम पर हुकुम चलाना शुरू कर देता है”…
“इसीलिए पूरी सावधानी और एतिहात बरतते हुए हम इस बात का पूरा ध्यान रखती हैँ कि हम किसी से दो-चार महीने से ज़्यादा कांटैक्ट में ना रहें”..
“क्योंकि यू नो!…हम भी इनसान हैँ और हमारे भी कुछ जज़बात होते हैँ”…
“लेकिन मनी मैटर्ज़ फर्स्ट”…
“इसलिए हमें जानबूझ कर ऐसी बातों को इगनोर करना पड़ता है”…
“तो क्या हम किसी को कहती हैँ कि आ के हमारे से चिपको?…
“फॉर यूअर काईन्ड इंफार्मेशन…हम किसी के पास नहीं जाती बल्कि सभी हमारे पास खुद अपने आप खिंचे चले आते हैँ”…
“तो इसके जवाब में मैँ बस इतना ही कहना चाहूँगी कि ये कहाँ की समझदारी है? कि ट्रेन में या बस में…ऑटो में या रिक्शे में…होटल में या ढाबे में या कभी किसी हाई-फाई रैस्टोरैंट में कोई हमसे सटकर…चिपक कर बैठना चाहे तो हम उसे दुत्कार अपना ही नुकसान कर लें?
“अगर हमारे साथ सट कर बैठने से उसमें करैंट दौड़ने लगता है”…
“उसे वाईब्रेशन का सा मीठा-मीठा अनुभव होने लगता है”…
“कई दिनों से बन्द पड़ी बैटरी अपने आप चार्ज होने लगती है”..
“उसका दिन अच्छा और आराम से गुज़रता है”…
“उसे खुशी के दो पल नसीब होते हैँ’….
“तो आखिर इसमें आपको दिक्कत ही क्या है?”
“हर्ज़ा ही क्या है?”…
“वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि ज़्यादतर हमारे शिकार नासमझ नहीं बल्कि निहायत ही समझदार और पढे-लिखे इनसान होते हैँ”…
“ये वो लोग होते हैँ जो अपनी पत्नियों से…अपनी प्रेमिकाओं से किसी ना किसी कारण दुखी होते हैँ..त्रस्त होते हैँ”..
“इनमें कुछ ऐसे किस्म के इनसान भी होते हैँ जिन्हें घर की दाल में कोई इंटरैस्ट नहीं बचा होता और कुछ एक तो अच्छा-भला सब कुछ होते हुए अपनी आदत से मजबूर होते हैँ
“आपको हमारी गल्तियाँ …हमारी कमियाँ तो तुरंत दिख जाती हैँ और आप हमें तुरंत बिना सोचे-समझे ‘चालू’…चालू कहना शुरू कर देते हैँ”…
“ये भी नहीं सोचते कि हमारी भी कोई ना कोई मजबूरी हो सकती है इस सब के पीछे”…
“आपको क्या पता कि हमें पैसे की कितनी ज़रूरत होती है?”…
“कभी हमारे मोबाईल में बैलैंस नहीं होता तो कभी हमें लेटेस्ट ट्रैंड के कपड़े खरीदने होते हैँ”…
“कभी हमारा लिपस्टिक-पाउडर खत्म हुआ रहता है कभी फिल्म देखने को हमारा मन तरस रहा होता है”…
“कभी हमें डिस्को जा नाचना-गाना होता है तो कभी फन एण्ड फूड विलेज के झूलों में हिचकोले खाने को मन कर रहा होता है”…
“कभी कोई सहेली अपनी नई चेन या अँगूठी दिखा हमें चिढाती हुई उकसा रही होती है”…
“तो इसके जवाब में मैँ बस इतना ही कहना चाहूँगी कि शायद आप नहीं जानते हैँ कि औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है”
“उन्होंने ने जैसे ही हमें आते देखना है…बस तभी झट से फैल के पूरी की पूरी सीट पे कब्ज़ा जमा लेना है…मानो उनके बाप का राज हो”…
” वहीं दूसरी तरफ मर्द बेचारे!…हमें देखते ही खुद कोने में खिसक के हमारे बैठने का जुगाड़ कर देते हैँ”…
“भले ही इस सब में उनका निहित स्वार्थ छिपा होता है लेकिन हमें इससे क्या?”…
“हमें तो बैठे-बिठाए ही बैठने को सीट मिल गई..अब बेशक कोई मरे चाहे जिए”…
“क्या फर्क पड़ता है?”..
“लेकिन कुछ एक बेशर्म टाईप के इनसान(वैसे क्या इन्हें इनसान कहना उचित होगा?)इसके अपवाद भी होते हैँ…जो बेफाल्तू में चौड़े हो हमें सीट देने से साफ-साफ नॉट जाते हैँ”…
“ऐसे बेवाकूफों के चलते हमें कई मर्तबा खिसियाते हुए चुपचाप खड़े रह कर भी सफर करना पड़ता है”..
“खैर इनसे तो इनका खुदा निबटेगा”…
“बस!…बहुत हो गया…भतेरे लगा लिए आपने इलज़ाम-शिलज़ाम”…
“अब चुपचाप आप हमारी सुनें”…
“आप हमारे ऊपर आरोप-प्रत्यारोप लगाते फिरते हैँ लेकिन कभी आईने में भी झाँक के देखा है आपने खुद को?”…
“मैँ तो दावे के साथ खम ठोक के कह सकती हूँ कि ‘चालू’ हम लड़कियाँ नहीं बल्कि आप मर्द होते हैँ चालू……महा चालू”…
“हम ज़रा सा किसी से हँस-बोल क्या लेती हैँ तो आप जैसे दूर से तमाशा देखने वाले तुरंत ही ईर्ष्या और जलन की पावन अग्नि में जल उठते हैँ”…
“अरे!…जल क्या उठते हैँ?”…
“ऊपर से नीचे तक…अन्दर से बाहर तक अच्छी तरह से जलभुन के पूर्ण रूप से कोयला बन सुलग उठते हैँ”…
“कँजूस कहीं के”…
“क्या आप जैसे समझदार…मैच्योर्ड इनसान को ऐसा करना शोभा देता है?”…
“नहीं ना?”…
“हा…हा…हा…
देखा!…बातों ही बातों में मैँने आपको मैच्योर्ड करार दे दिया और आप हैँ कि कोई इल्म ही नहीं…कोई गुमान ही नहीं कि हवा किस ओर बह चली”…
“अरे!…यही तो शब्दों का खेला है और ऐसे तीन सौ बाईस खेल हम रोज़ाना खेला करती हैँ”..
“कभी इसके साथ..तो कभी उसके साथ”…
“वैसे ये हमारा दावा ही नहीं बल्कि खुला चैलैंज है कि जिस किसी भी ऐरे-गैरे…नत्थू-खैरे से हमने एक बार दिल खोल…हँसकर… मुस्कुरा कर बोल-बतला लिया …वो तो समझो कि गया काम से”…
“याने के…फुल्ल टू शैंटी फ्लैट”…
“हा…हा…हा”…
“अरे!…हम तो वो हैँ जो बीच बाज़ार खुली आँखों से काजल चुरा लें”..
“अब आपको अगर हमारे टैलेंट …हमारे हुनर की कद्र नहीं है तो ना सही लेकिन इस सबसे हमारी वैल्यू…हमारी कीमत कम नहीं हो जाती”…
“अगर हमारे बारे में सही मालुमात करना चाहते हो तो जा के उनसे पूछो जो हमसे…
किस तरह चिपकना है?…
कैसे चिपकना है?…की घंटो रिहर्सल करने के बाद बावले हो रोज़ाना मिलने की जुगत में रहते हैँ”…
“अगर किसी दिन हम उन्हें ना दिखें या किसी कारण उनकी बाट देखती आँखो से ओझल हो जाएँ तो…
मुँह उतर आते हैँ उनके…चेहरे मायूसी से लटके मिलते हैँ”…
“अरे!…हमारा असर ही इतना तगड़ा है कि हमारे चले जाने के घंटो बाद भी हमारा वाईब्रेशन कम नहीं होता और वो बाद में…अकेले में भी मन्द-मन्द मुस्काते रहते हैँ”…
“बेवाकूफ बेचारे!..कलयुग के ज़माने में भी लैला-मजनू के किस्सों को हकीकत समझते हैँ और ये सोच-सोच फूल के कुप्पा हो…मस्त हुए जाते हैँ कि अपनी तो फुल्ल-फुल्ल सैटिंग हो गई”…
“हुँह!…बड़े देखे हैँ ऐसे सैटिंग करने-कराने वाले”…
“अरे!..हम कोई प्लास्टर ऑफ पैरिस की फटी हुई थैली या बोरी नहीं कि पल भर में ही ज़रा सा नमी लगते ही सैट हो जाएँ”…
“अरे!…ऐसे सड़कछाप मजनू तो मैँ रोज़ाना छत्तीस से सैंतालिस तक देखती हूँ”…
“जहाँ कोई ढंग की लड़की दिखी नहीं कि झट से लाईन लगाना चालू”…
“तो ऐसे में अब आप ये बताएँ कि ‘चालू’ कौन हुआ?”…
“आप या फिर हम?”…
“हो गया ना डब्बा गोल?”..
“खैर !..ये सब तो मैँ मज़ाक कर रही थी”…
“दरअसल ऊपर से मैँ आपको जितनी भी खुश…जितनी भी सुखी नज़र आऊँ लेकिन अन्दर ही अन्दर मैँ बहुत परेशान..बहुत चिंतित…बहुत दुखी हूँ”…
“वैसे ऊपरी तौर पर देखा जाए तो मुझे कोई दुख नहीं है”…
“अच्छा खा…अच्छा पहन के मज़े-मज़े में लाईफ को धक्के दे अपनी मर्ज़ी से जिए चली जा रही हूँ लेकिन…
मुझे अपनी नहीं बल्कि अपनी आने वाली नसलों…आने वाली पीढियों की चिंता है कि इस बढती मँहगाई के ज़माने में वो कैसे अपने
वजूद को ज़िन्दा रख हमारे टैलैंट…हमारी कला को आगे बढा पाएँगी?”…
“मेरी तो यही दिली इच्छा है कि मैँ अपने जीते जी आने वाली नस्लों के लिए ऐसा कुछ कर जाऊँ कि उन्हें किसी के आगे हाथ ना फैलाना पड़े…झोली ना फैलानी पड़े”…
“इसी अहम बात को मद्दे नज़र रख मैँने अपने जीवन में कुछ कड़े फैसले लेने का निर्णय लिया है जैसे…
“याने के फुल बचत ही बचत”…
“मैँने तो ये फैसला भी लिया है कि अपने बचाए पैसो से मैँ अपने जीते जी एक सामाजिक संस्था का निर्माण करूँगी”…
“जो हमारी सभी साथिनों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहेगी”…
“मैँने तो अभी से उस संस्था का नाम भी सोच लिया है”…
“संस्था का नाम होगा…‘चालू चिड़िया उत्थान समिति”…
“इस संस्था की चेयर पर्सन ऑफकोर्स…आजीवन मैँ खुद ही रहूँगी”…
“बस!..एक बार मेरा नाम हो जाए…उसके बाद तो एक से एक इलैक्शन होते ही रहते हैँ हमारे देश में”…
“कभी कार्पोरेशन के…तो कभी एम.एल.ए के”…
“धीरे-धीरे…सीढी दर सीढी आगे बढते हुए मैँने एक ना एक दिन अपनी मंज़िल…अपनी ख्वाईश को पा के ही दम लेना है”…
“वैसे एक राज़ की बात बताऊँ?”…
“मेरी नज़रें तो ना जाने कब से प्रधान मंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक….सभी पदों पर लगी हुई हैँ”…
“लेकिन आप ये ना समझें कि प्रधान मंत्री या फिर राष्ट्रपति बन जाने के बाद मैँने अपनी औकात भूल जानी है”…
“बल्कि मैँने तो ऊँचा पद पाने के बाद अपनी सभी नई-पुरानी सभी साथिनों के उद्धार के लिए एक ट्रस्ट का गठन करना है जिसके अंतर्गत देश भर में कई डिग्री कॉलेजों और विद्यालयो का निर्माण किया जाएगा और जहाँ सिर्फ और सिर्फ ‘चालू चिड़ियाओं’ के उत्थान से रिलेटिड विष्य ही पढाए जाएँगे जैसे…
“नई लड़कियों को चालू बनने के तौर-तरीके और लेटेस्ट गुर सिखाना”…
“लेटेस्ट फैशन से रुबरू करवा उन्हें एकदम अप टू डेट रखना”…
“एक से एक नौटंकी…एक से एक ड्रामा करना सिखाना वगैरा वगैरा…”..
“मैँ अच्छी तरह जानती हूँ कि जितना मैँ सोच रही हूँ…काम उतना आसान नहीं है लेकिन मेरे हिसाब से इस मायावी दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं है”…
“ये भी मुझे मालुम है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता”…
“काम बहुत ज़्यादा है और समय बहुत ही कम है”…
“इसलिए ना चाहते हुए भी मुझे मजबूरन आप जैसे महानुभावों की मदद लेनी पड़ेगी”…
“तो लीजिए ये रसीद बुक और बताएँ कि आप कितने की पर्ची कटवाना पसन्द करेंगे?”…
“क्या कहा?”…
“सिर्फ इक्यावन की?”…
“हट!…परे हट स्साले……
और सीधे-सीधे निकाल पाँच सौ का कड़कड़ाता हुआ हरा पत्ता अपने जेब से…वर्ना अभी के अभी शोर मचा दूँगी”…
“स्साले!…इस से ज़्यादा के मज़े तो तू ले ही चुका है पिछले दो घंटे में मुझसे चिपके-चिपके”…
“जय हिन्द”…
“भारत माता की जय”…
“जय हो…चालू चिड़िया उत्थान समिति की…जय हो”
***राजीव तनेजा***
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