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***राजीव तनेजा***
ठक…ठक…
ठक्क…ठक्क
“लगता है स्साला!…ऐसे नहीं खोलेगा….तोड़ दो दरवाज़ा”…
“जी!…जनाब”…
थाड़……थाड़…धमाक…धमाक(ज़ोर से दरवाज़ा पीटे जाने की आवाज़)
“रुकिए …रुकिए …क्कौन है?”..
“पुलिस…दरवाज़ा खोलो”….
“प्पुलिस?…इतनी रात गए?”…
“हाँ!…बेट्टे..पुलिस…तुझ जैसे चोरों को पकड़ने के लिए रात में ही रेड डालनी पड़ती है”…
“इंस्पैक्टर साहब…सब कुशल-मँगल तो है ना?”…
“हाँ!…कुशल भी है और मँगल भी है…अभी उन्हीं का रिमांड ले के सीधा तेरे पास आ रहे हैँ”…
“रिमांड ले के?…मेरे पास?…मैँ कुछ समझा नहीं”….
“समझता तो बेट्टे..तू सब कुछ है लेकिन जानबूझ के अनजान बन रहा है”…
“क्क्या…क्या मतलब?”…
“मतलब तो बेट्टे..सब समझ आ जाएगा…जब आठ-दस पड़ेंगे हमारे तेल पिलाए…घुटे-घुटाए भीमसैनी लट्ठ”…
“आखिर हुआ क्या है इंस्पेक्टर साहब?”..
नोट:इस कहानी में मैंने चार किरदारों का इस्तेमाल किया है
इनके आपसी वार्तालाप को समझने में किसी किस्म का भ्रम उत्पन्न ना हो …इसलिए मैंने सभी पात्रों के संवादों को अलग-अलग रंग से लिखा है…उम्मीद है इस बात को समझने के बाद आपको कहानी पढ़ने का पूरा आनंद आएगा |
“सब समझ में आ जाएगा…हवलदार..तलाशी लो सारे घर की”…
“जी!…जनाब”…
“क्यों बे!…तेरे घर में कितने कम्प्यूटर हैँ”…
“ज्जी…तीन…दो डैस्कटाप और एक लैपटाप…क्यों?…क्या हुआ?”…
“चिंता मत कर…अब एक भी नहीं रहेगा”..
“क्क्या…क्या मतलब?”..
“स्साले!…एक तो पाइरेटिड सोफ्टवेयर इस्तेमाल करता है और ऊपर से जुबान लड़ाता है?”…
“व्वो…दरअसल…क्या है कि…
“लो!…अब हकलाना शुरू हो गया”…
हा…हा…हा…हा…
“क्यों बे…कितने कंप्यूटर बता रहा था?”….
“जी!…तीन”…
“घर बैठे ही सायबर कैफे चला रहा है क्या?…लाईसैंस है तेरे पास?”…
“आपको गलतफहमी हुई है सर…मैं और सायबर कैफे?…सवाल ही नहीं पैदा होता”…
“तो फिर दो कमरों के इस छोटे से फ़्लैट में तीन-तीन कम्प्यूटर ले के क्या घुय्यियाँ छीलता है?”…
“ज्जी!…अ..एक मैँ अपने पर्सनल यूज़ के लिए इस्तेमाल करता हूँ और एक मेरी मिसेज कभी-कभार खोल लेती है चैट-वैट के लिए और….
“हम्म!…तो इसका मतलब बदचलन भी है”…
“बदचलन?”…
“और तीसरा वाला कौन…तेरा फूफ्फा इस्तेमाल करता है?”…
“जी!…व्वो तो लन्दन में रहते हैं…..वो यहाँ कहाँ से आएंगे?….तीसरा वाला तो मेरे बच्चे अपने काम में लाते हैँ”….
“हम्म!…तेरे घर में इंटरनैट का इस्तेमाल कौन-कौन जानता है?”…
“अजी!…काहे का घर?…दो कमरों का बस छोटा सा फ़्लैट है…पिछले तीन साल से किश्तें नहीं भरी हैं”मेरा मायूसी भरा रुआंसा होता हुआ स्वर…
“फ़्लैट की?”..
“नहीं!…कमेटी की”…
“स्साले!….फाल्तू की नौटंकी बंद कर और सीधे-सीधे मतलब की बात पे आ”इंस्पेक्टर की कड़क..गरियाती हुई आवाज़….
“ज्जी!…सभी”…
“सभी से मतलब?”…
“मैँ…मेरी पत्नि और…
“और वो?”…
“जी!….
“स्साले!…बड़ा ठरकी है तू तो”…
“थैंक्स!…थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट”…
“इट्स ओ.के”…
“लेकिन इस ‘वो’ से मेरा मतलब वो वाला ‘वो’ नहीं था”..
“क्या मतलब?”…
“मेरा मतलब अपने बच्चों से था”…
“ओह!…तो इसका मतलब तेरी पूरी फैमिली ही क्रिमिनल बैकग्राउंड वाली है”…
“क्रिमिनल बैकग्राउंड?….मैं कुछ समझा नहीं”…
“दिखा!…तेरे कम्प्यूटर कहाँ-कहाँ हैं?”…
“ज्जी….इस तरफ….यहाँ…यहाँ बायीं तरफ”…
“हम्म!…
“ह्हुआ..क्क…क्या है…इ..इ..इंस्पैक्टर साहब?”…
“बेट्टे…अभी तो पूछताछ ढंग से शुरू भी नहीं हुई और तुझे दस्त लग गए?”..
“अ…आपका रुआब ही कुछ ऐसा है कि…..
“थैंक्स!…थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट”…
“इट्स…ओ.के…ये तो मेरा फ़र्ज़ था”…
“बस्स!…फालतू की मस्काबाजी बंद”…
“जी”…
“हवलदार!….
“जी!…जनाब”…
“इसका ‘कम्प्यूटर’… ‘हार्ड डिस्क’… ‘पैन ड्राईव’…..’सी.डी’…’डी.वी.डी’…मेमोरी कार्ड वगैरा…सब का सब खंगाल मारो…कोई चीज़ छूटनी नहीं चाहिए”…
“जी!…जनाब”…
“य्ये…ये देखिए जनाब!….पट्ठा एक साथ तीन-तीन फिल्में डाउनलोड कर रहा है”…
“तो?”…
“हम्म!…और अपलोड कितनी कर रहा है?”…
“जी!…पूरी ब्यालिस”…
“ओह!…ज़रा देख के तो बता कि इनमें नई कितनी है और पुरानी कितनी?”…
“जी!…जनाब”…
“तो?…इसमें इतनी हाय-तौबा मचाने की क्या ज़रूरत है…सभी ऐसा करते हैं”…
वार्तालाप में चौथे शख्स का आगमन …
“लेकिन क्यों?…क्या आपको कम्प्यूटर चलाना नहीं आता?”…
“क्या बात कर रहे हैं?…आई एम् ए सर्टीफाईड कम्प्यूटर प्रोफैशनल फ्राम NIIT खड़गपुर”…
“नाईस प्लेस ना?”…
“वैरी नाईस”…
“तो फिर आप इस पुलिस जैसी कुत्ती लाइन में कैसे आ गए?”…
“बेवाकूफ!…ये मैं नहीं बल्कि ये बोल रहे हैं”…
“ये कौन?”…
“म्मै …मैं रोहित झुनझुनवाला”…
“अब यार ये झुनझुना पकड़ के कौन टपक गया?”मैं हवलदार से मुखातिब होता हुआ बोला …
“एक मिनट…माय मिस्टेक…इन साहब से तो आपका परिचय कराना मैं भूल ही गया”…
“जी!…
“इनसे मिलो….ये आपको बताएँगे कि इस तरह फिल्में डाउनलोड करने से इन्हें क्या ऐतराज़ है?”….
“हैलो!…
“हैलो”मेरा अनमना सा जवाब…..
“माय सैल्फ …रोहित झुनझुनवाला …सीनियर इन्वेस्टीगेशन आफिसर फ्राम ऐंटी पाईरेसी डिपार्टमैंट”…
“ओह!…..
“क्या बात कर रहे हैं आप?…सप्लाई…वो भी लोकल मार्किट में?…और मैं?…इम्पासिबल”..
“जी!…हाँ…आप”…
“उफ्फ!…ऐसा घिनौना इलज़ाम सुनने से पहले मेरे ये कान फट क्यों ना गए?…तबाह क्यों ना हो गए?…बर्बाद क्यों ना हो गए?”….
“चिंता मत कर…थाने चल….अभी दो मिनट में तेरी ये मुराद भी पूरी कर देंगे”…
“मम्…मैं तो इतना कह रहा था स्स…सर कि जब डिमांड ही नहीं है किसी चीज़ की तो फिर सप्लाई का तो सवाल ही नहीं पैदा होता ना?…
“तो फिर स्साले…ये बता कि तेरा ये नैट पूरा दिन…पूरी रात किसलिए ऑन रहता है?”..
“नया दिन..नई रात डाउनलोड करने के लिए”…
“क्या मतलब?”..
“सुसरा!…कई दिन से कोई सीडर ही नहीं मिल रहा”….
“ओह!….
“अब तक कितनी फिल्में डाउनलोड कर चुका है?”इंस्पेक्टर मुझे घूरता हुआ बोला …
“ऐसे कुछ खास याद नहीं?”…
“कोई बात नहीं…कोई बात नहीं..हम याद दिला देंगे”….
“आप याद दिला देंगे?”…
“हाँ”…
“लेकिन कैसे?…मैंने तो किसी को….
“हमने आपकी नैट प्रोवाईडर कंपनी से सब पता कर लिया है कि अब तक आप कितने जी.बी डाटा डाउनलोड तथा अपलोड कर चुके हैं”….
“तो?…इससे क्या साबित होता है?”…
“यही कि तू नैट का इस्तेमाल पाईरेसी के लिए कर अपने देश की नींव को…इसकी बुनियाद को…जड़ से खोखला कर दुश्मन देशों की मदद कर रहा है”…
“क्या मतलब?”…
“पता है तेरे जैसे लोगों के कारण सरकार को कितने टैक्स की हानि हो रही है…फिल्म प्रोड्यूसरों को कितना नुक्सान हो रहा है?”….
“अकेले उन्हीं का नुक्सान नहीं हो रहा है…मेरा भी हो रहा है”…
“क्या मतलब?”…
“दिन-रात कम्प्यूटर ऑन रहने से कई मर्तबा मेरी ‘रैम’ उड़ चुकी है”…
“तुम्हारी ‘रैम’?”…
“नहीं!..मेरी ‘मैम’ की?”…
“क्या मतलब?”…
“रैम मेरी मैम की है”…
“मैम माने?”..
“मैडम”…
“मैं कुछ समझा नहीं”..
“वो वाला कम्प्यूटर उसी का तो था”…
“कौन सा वाला?”..
“जो वो दहेज में लाई थी”…
“क्या मतलब?”…
“उसी की रैम तो….
“हम्म!…हवलदार”…
“जी!..जनाब”..
“दहेज का केस भी ठोको पट्ठे पर”…
“म्म…मैं तो बस ऐसे ही मजाक कर रहा था”…
“हैं…हैं…हैं…तो हम कौन सा असलियत में केस ठोक रहे थे?”…
“ओह!…
“आगे बोल”…
“तीन बार तो मेरी ‘हार्ड डिस्क’ क्रैश कर गई है”…
“तुम्हारी?”…
“नहीं!..कम्प्यूटर की”…
“ओह!…
“अभी तो जनाब आपने मेरे बारे में जाना ही क्या है….जो अभी से ओह-ओह…करने लगे?”..
“क्या मतलब?”…
“तीन दफा मेरी बीवी घर छोड़ के भाग चुकी है”…
“अपने यार के साथ?”…
“नहीं”…
“तो फिर?”…
“सहेली के साथ?”…
“हुआ क्या था?”…
“होना क्या था?..मेरे दिन-रात कम्प्यूटर के साथ लगे रहने से….
“इसमें ऐसा भी जुगाड होता है?”हवलदार की बांछें खिलने को हुई …
“नहीं”…
“तो फिर?”…
“मैं दिन-रात कम्प्यूटर पर कुछ ना कुछ करता रहता था तो….
“तो?”..
“बीवी बोर होने की शिकायत लेकर अक्सर रात-बेरात घर से बाहर निकल जाया करती थी”…
“ओह!…
“संयोग से तीन-चार बार उसे गली में सहेली टहलती हुई मिल गई…तो उसी के साथ ..
“वो मुंह काला कर के भाग खड़ी हुई?”…
“नहीं”…
“तो फिर?”…
“उसी के साथ पत्थरबाजी में घायल हो…
“वो जामुन तोड़ रही थी?”…
“नहीं..रात में भी कोई जामुन तोड़ता है?”…
“तो फिर?”…
“ऐसे ही शौक-शौक में एक-दूसरे पर हल्ला बोल….
“हमले की शुरुआत कर रही थी?”…
“जी!…
“तुम्हें पक्का पता है कि वो सहेली ही थी?”…
“जी!…सौ परसेंट”…
“तो फिर…ऐसे…कैसे?…मैं कुछ समझा नहीं….ज़रा खुल के समझाओ”…
“दरअसल!…नैट की वजह से ही तो हमारी दोस्ती हुई थी”…
“तुम्हारी और तुम्हारी बीवी की?”…
“नहीं”…
“तो फिर?”…
“मेरी और सहेली की”…
“वो तुम्हारी सहेली थी?”….
“जी!…
“ओह!…
“आप क्या समझ रहे थे?”…
“क्कुछ नहीं…आगे बोलो”…
“उसी के साथ पता नहीं क्या तू-तू…मैं-मैं हुई और एकाएक दोनों तरफ से ताबड़तोड़ हमला शुरू हो गया”…
“हम्म!…पहला पत्थर किसने मारा था?..तुम्हारी बीवी ने या उसने?”…
“किसी ने भी नहीं”…
“क्या मतलब?”…
“पहला तो पत्थर मैंने मारा था जनाब…मैंने”मैं फूल कर कुप्पा हो गर्व से अपना कालर ऊपर करता हुआ बोला …
“क्क्या?”..
“जी!…
“लेकिन क्यों?”…
“छुटकारा पाने के लिए?”..
“बीवी से?”…
“नहीं!..सहेली से”….
“क्यों?…वो सुन्दर नहीं थी क्या?”…
“क्या बात करते हैं इंस्पेक्टर साहब?….सुन्दर तो वो इतनी थी…इतनी थी कि मैं बैठे-बैठे अक्सर ऊँगलियों चाट जाया करता था”…
“उसकी?”…
“नहीं!…अपनी”….
“पैर की?”…
“नहीं!…हाथ की”…
“तो?…इसका उसकी सुंदरता से क्या कनेक्शन?”….
“बहुत गहरा कनेक्शन है”…
“कैसे?”…
“इन्हीं उंगलियों को तो मैं उसके गोरे-गोरे…
“गालों पे फिराया करते थे?”..
“नहीं!…होंठों पर”…
“लेकिन होंठ तो लाल होते हैं…गोरे नहीं”…
“उसके थे”…
“गोरे?”…
“जी!…
“लेकिन कैसे?”…
“उसे सफ़ेद दाग की बिमारी थी”…
“ओह!….
“सच में…बड़ा मज़ा आता था”…
“ऊँगलियाँ फिराने में?”…
“नहीं!…चाटने में….आप भी चाट के देखिए …सच में..बड़ा मज़ा आएगा”मैं इंस्पेक्टर साहब के मुंह के आगे अपनी दसों ऊँगलियाँ लहराता हुआ बोला …
“&^%$#%$#$%^& …क्या बेहूदा बकवास कर रहा है…
“ऐसे ही…बिलकुल मुझे भी गुस्सा आया था”…
“ऊँगलियाँ चाटते वक्त?”…
“नहीं!…फिराते वक्त”…
“लेकिन क्यों?”…
“उसने छींक जो दिया था”…
“तुम्हारे हाथ पे?”…
“नहीं!…मेरे मुंह पे”…
“ओह!….तो इसी वजह से तुम उससे छुटकारा पाना चाहते थे?”…
“नहीं!…छींक तो किसी को भी आ सकती है”…
“तो फिर?”…
“उसी की वजह से मुझे ये लत लगी थी”…
“ऊँगलियाँ फेरने की?”…
“नहीं”…
“मुंह पे छींकवाने की?”…
“नहीं!…फिल्में डाउनलोड करने की”…
“क्या मतलब?”…
“पट्ठी रोज अड़ियल घोड़ी के माफिक अड़ के खड़ी हो जाती थी कि आज मुझे सनीमा दिखाओ…आज मुझे सनीमा दिखाओ”…
“तो?”…
“अब आप सब की तरह मेरी दो नंबर की कमाई तो है नहीं कि उसे हर रोज सिनेमा हाल में फिल्म दिखाने के लिए ले जाता”..
“रोज नहीं ले जा सकते थे तो कम से कम हफ्ते में एक आध बार तो ले ही जा सकते थे”…
“बालकनी की टिकट पता है कितने की है ‘P.V.R’ में?”…
“कितने की?”…
“पूरे डेढ़ सौ की”…
“तो?…डाक्टर ने कहा है कि बालकनी की टिकट खरीदो?…अपना आगे की फ्रंट रो की टिकट भी तो खरीद सकते थे”…
“तुमने कभी इश्क किया है?”…
“नहीं”…
“तो फिर तुम क्या जानो अदरक का स्वाद?”…
“क्या मतलब?”…
“अरे!..बेवाकूफ…जब भी कभी डेट पे माशूका के साथ फिल्म देखने जाओ तो हमेशा लास्ट रो की कार्नर सीट्स ही बुक करवाओ”…
“किसलिए?”…
“अँधेरा होता है वहाँ”..
“तो?”…
“रौशनी से डर जो लगता है जोड़ों को”…
“ओह!…लेकिन इसका तुम्हारे नैट से फिल्में डाउनलोड करने से क्या कनेक्शन है?…ये बात मेरे समझ नहीं आई”…
“अरे बेवाकूफ!…
“क्या बकवास कर रहा है?”….
“ओह!…सॉरी….ऐसे ही ज़बान फिसल गई थी”…
“और अगर ऐसे ही मेरा डंडा फिसल गया तो?”…
“आप धडाम से नीचे…फर्श पे चारों खाने चित्त जा गिरेंगे”…
“क्या मतलब?”..
“ध्यान से देखिये…आप इसी का सहारा ले के खड़े हैं”…
“ओह!…
“हाँ!…तो मैं कह रहा था कि वो पागल की बच्ची…..
“उसकी माँ पागल थी?”…
“नहीं!…पागल तो मैं था जो उसके झांसे में आ हमेशा अपनी जेब कटवाने को तत्पर रहता था”…
“वो जेबकतरी थी?”…
“नहीं!…
“तो फिर?”…
“आप समझ नहीं रहे हैं…मेरे कहने का मतलब था कि मैं पागल था जो….
“ओह!..तो इसका मतलब तुम पागल थे”…
“ओफ्फो!…क्या मुसीबत है?”…
“मैं मुसीबत हूँ?”…
“नहीं!…आपसे बात नहीं कर रहा हूँ”…
“ओह!…तो इसका मतलब मैं पागल हूँ जो इतनी देर से तुम्हारी तरफ प्यार भरी नज़र से टकटकी लगाए एकटक देख रहा हूँ”…
“नहीं!…आप भला पागल कैसे हो सकते हैं?..आप तो इतने बड़े पुलिस के अफसर”…
“नहीं!…सच में मैं ही पागल हूँ जो इस बेवाकूफ के कहने पर तुम्हारे यहाँ धाड़ मारने आ गया”इंस्पेक्टर रोहित की तरफ इशारा करता हुआ बोला …
“धार मारने?…आपके यहाँ टायलेट नहीं है क्या?”…
“है!…लेकिन टपक रहा है”…
“क्या?”…
“पानी”..
“कहाँ से?”…
“नल से…और कहाँ से?”…
“ओह!…..
“कमाल कर रहे हैं सर आप….ये आपको अपनी ऊलजलूल बातों में गोल-गोल घुमाए जा रहा है और आप हैं कि चक्करघिन्नी की तरह बार-बार घूम के फिर उसी जगह पहुँच जाते हैं…जहाँ से हमने शुरुआत की थी”…
“कहाँ से की थी?”…
“आप सीधे-सीधे इससे पूछिए कि ये नैट से फिल्में डाउनलोड करता है कि नहीं?”…
“इसमें पूछना क्या है?…साफ़-साफ़ एकदम क्लीयरकट दिख तो रहा है कि ये तीन फिल्में डाउनलोड कर रहा है”…
“जी!…
“लेकिन क्यों?”…
“क्यों?”इंस्पेक्टर मेरी तरफ देख अपने चेहरे पे प्रश्नवाचक चिन्ह बनाता हुआ बोला
“अभी कहा ना”…
“क्या?”…
“यही कि वो….
“पागल की बच्ची?”…
“जी!…वो रोज नई फिल्म दिखाने के लिए पकड़ के खड़ी हो जाती थी”..
“क्या?”..
“जिद”…
“हम्म!…और तुम्हारा उसके आगे बिलकुल नहीं खडा रह पाता था?”…
“क्या?”..
“वजूद”..
“जी!…
“तो इसका मतलब तुमने उसको खुश करने के लिए ये जुर्म का रास्ता अख्तियार किया?”…
“जी!…खुश तो मैं उसको इसके बिना भी अच्छी तरह से कर सकता था लेकिन…
“लेकिन?”…
“दिल है कि मानता नहीं”…
“क्या मतलब?”…
“उसका दिल ही नहीं मानता था”…
“ओह!..
“उसे हमेशा बस फिल्मों की ही पड़ी रहती थी ..मेरी तो कोई चिंता ही नहीं थी उसे”.मेरा मायूस स्वर …
“ओह!…
“अब रोज-रोज उसे मैं महँगी-महँगी दरों पे टिकटें खरीद कर फिल्में दिखाऊँ या फिर अपने बीवी-बच्चों का पेट पालूँ?…उनकी फीस भरूं?”..
“तुम्हारी बीवी तुमसे फीस लेती थी?”…
“नहीं!…फीस तो वो लेती थी”…
“तुम्हारी माशूका?”…
“नहीं!…मैं झूठ नहीं बोलूँगा…उसने तो हमेशा ही मुफ्त में मेरा…कई बार मनोरंजन किया…अपनी बातों से”…
“तो फिर?”…
“फीस तो स्कूल की मैडम लेती थी”…
रोहित तैश में आ गुस्से से अपने दांत पीसता हुआ बोला …
“राम-राम…तौबा-तौबा…कैसी गिरी हुई और ओछी बाते कर रहे हैं आप …वो भी एक गुरु के लिए…मेरे बच्चों की टीचर के लिए?”..
“आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं?”…
“ओह!..सॉरी..आई एम् वैरी सॉरी…मुझे लगा कि आप भी शायद..मेरी तरह ….
“क्या मतलब?”…
“क्कुछ नहीं”…
“तुम आगे बोलो”…
“उसके साथ एक फिल्म देखने का मतलब था पूरे हज़ार रूपए की चपत लगना”…
“टीचर के साथ?”..
“फिर वही बात?…वो कहते हैं ना कि चोर चोरी से जाए…हेराफेरी से ना जाए”…
“साहब!…ये आपको चोर बोल रहा है”.हवलदार बीच में अपनी चोंच अडाता हुआ बोला..
“क्या सच में?”इंस्पेक्टर चौंक कर पलटते हुए बोला ..
“नहीं!…बिलकुल नहीं…इसको ग़लतफ़हमी हुई है सर…मैं ऐसा सोच भी कैसे सकता हूँ?”..
“हम्म!…
“तुम कह रहे थे कि उसके साथ फिल्म देखने का मतलब है पूरे हज़ार रूपए की चपत लगना?”…
“जी!…
“लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है?”…
“क्या?”…
“टिकट तो डेढ़ सौ की ही आती है ना?”..
“जी!…
“तो फिर दो टिकटों के हो गए तीन सौ…बाकी सात सौ का क्या करते थे?”…
“वो अपने बच्चों को भी साथ में फिल्म दिखाने के लिए ले के जाती थी”….
“क्क्या?”…
“यही!…बिलकुल यही…सेम टू सेम मेरा भी एक्सप्रेशन था जब उसने पहली बार अपने बच्चों को साथ ले जाने की बात कही थी”..
“ओह!…
“बाद में तो खैर हमें इसकी आदत सी पड़ गई थी”…
“क्या मतलब?”…
“बच्चे अपना अलग मस्त रहने लगे थे और हम अपना अलग”…
“क्या मतलब?”…
“बच्चे अपना खाने-पीने में और हम अपना फिल्म देखने में व्यस्त रहने लगे थे”…
“ओह!….
“ये तो भला हो उस ऊपर बैठे….
“खुदा का?”…
“नहीं!…ऊपरली लाइन में बैठे एक नेक सज्जन पुरुष का जिसने थप्पड़ मार के मेरी आँखें खोल दी”…
“क्या मतलब?”…
“वो दरअसल हुआ क्या कि एक दिन हमें आखिरी के बजाये उससे नीचे वाली लाइन में सीट मिली”..
“तो?”…
“उस दिन मेरी सहेली की तबियत ठीक नहीं थी …इसलिए उसने मुझे मना कर दिया”…
“बातें करने से?”…
“जी!…
“फिर क्या हुआ?”…
“फिल्म भी कुछ बोरिंग सी ही थी…इसलिए मुझे भी जल्दी ही नींद आ गई”…
“होता है…होता है…अक्सर मेरे साथ भी ऐसा ही होता है….फिल्म बोरिंग हो तो नींद आ ही जाती है”..
“जी!…
“फिर क्या हुआ?”..
“होना क्या था…अचानक नींद में झनाटे से तड़ाक की आवाज़ आई और मैं कुलबुला के हड़बड़ाता हुआ झटाक से उठ खड़ा हुआ”….
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“देखता क्या हूँ कि वो तो किसी दूसरे के साथ पूरी तरह से मस्त हो…फुसफुसाते हुए…बड़े मज़े से रंग-बिरंगी…नशीली टाईप की बातें कर रही है”….
“रंग-बिरंगी?…नशीली टाईप की?…फुसफुसाते हुए?”…
“जी!…दरअसल उस थप्पड़ की वजह से मुझे हर तरफ रंग-बिरंगे झिलमिलाते से तारे से दिखाई दे रहे थे और नींद में होने के कारण खुमारी का नशा चढा हुआ था”..
“ओह!…फिर क्या हुआ?”..
“होना क्या था?..तब से मैंने ठान लिया कि अब से कोई आउटिंग नहीं…कोई सिनेमा नहीं”…
“गुड!…वैरी गुड”…
“चूहे दी खुड्ड”…
“क्या मतलब?”….
“बाहर फिल्में दिखाना बंद हो गया तो वो घर पर ही शुरू हो गई”…
“ओह!…
“अब बीवी के होते हुए भला मैं कैसे?…किसी दूसरी नार के साथ पलंग पे….एक ही रजाई में?”…
“पलंग पे?…एक ही रजाई में?”…
“जी!…
“मैं कुछ समझा नहीं”…
“दरअसल क्या है कि उन दिनों बाईचांस मेरे दोनों डैस्कटाप कम्प्यूटर खराब हो रहे थे…और सर्दी बहुत होने की वजह से मैं पलंग से ही रजाई के अन्दर …
हवलदार मेरी तरफ असमंजस भरा चेहरा ले ताकता हुआ बोला …
“पलंग से ही रजाई के अन्दर बैठ के लैपटाप को आपरेट कर रहा था”…
“ओह!…फिर क्या हुआ?”…
“होना क्या था?…मैंने उसे साफ़ मना कर दिया कि अब से चिपका-चिपकी…ताका-झांकी…सब बंद”……
“फिर क्या हुआ?”…
“मैंने उसे नैट से फिल्में डाउनलोड कर के डाईरैक्ट उसके घर पे सप्लाई देनी शुरू कर दी”…
“हुर्रे!…दैट्स दा प्वाइंट….इसने जुर्म कबूल कर लिया?”रोहित खुशी के मारे उछलता हुआ बोला …
“जुर्म?…मैंने कौन सा जुर्म किया है?…मैं तो बस ऐसे ही…महज़ टाईम पास के लिए…
“फिल्म कंपनियों का भट्ठा बिठा रहे थे?”…
“जी!…जी…बिलकुल”…
“याद रखिये जो कुछ भी आपने अब तक यहाँ कहा है या कहेंगे…उसे आपके खिलाफ बतौर सबूत इस्तेमाल किया जा सकता है”…
“ओह!…
“तो आप अपना जुर्म स्वीकार करते हैं?”…
“बिलकुल नहीं”…
“क्या मतलब?”…अभी-अभी तो आप कह रहे थे कि….
“क्या?”…
“यही कि आप फिल्में डाउनलोड कर के ….
“मुआफ कीजिए मिस्टर झुनझुनवाला…ये आप अपने शब्द ज़बरदस्ती मेरे मुंह में ठूसने की कोशिश कर रहे हैं”…
“क्या मतलब?”…
“वही…जो आप समझ रहे हैं”..
“ओए!..क्या बकवास कर रहा है?…अभी-अभी तो तूने मेरे सामने कहा कि….इंस्पेक्टर गुर्राते हुए बोला
“क्या?”…
“यही कि तू फिल्में डाउनलोड कर के….
“मैंने कब कहा?”…
“अभी-अभी”….
“कोई सबूत आपके पास कि….
“सीधी तरह बता कि तू अपना जुर्म कबूल करता है कि नहीं…वर्ना दूँ अभी खींच के कान के नीचे एक?”…
“जब मैंने कोई जुर्म ही नहीं किया है तो मैं उसे किस बात का कबूल करूँ?”मैं भी तैश में आ गुस्से से बोल पड़ा ..
“क्या इश्क करना जुर्म है?..क्या प्यार करना अपराध है?”…
“नहीं!…बिलकुल नहीं…कदापि नहीं “…
“वोही तो”…
“लेकिन ये बिना किसी परमिशन के फिल्में डाउनलोड करना तो अपराध है”…
“किस गधे ने तुमसे कहा?”…
“भारत सरकार ने”…
“क्या मतलब?”…
“इन्डियन मोशन एक्ट की फलानी…फलानी धारा के तहत ये एक जुर्म है…ये एक पाप है”…
“वाह!….बड़े सयाने आप हैं”…
“थैंक्स!…थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट”…
?…?…?..?…
“क्या आप जानते हैं कि आज के टाईम में औसतन एक फिल्म कितने करोड़ में बनती है?”…
“यही कोई बीस से पच्चीस करोड़…क्यों?…क्या हुआ?”…
“किस ज़माने की बात कर रहे हैं आप?…इससे ज्यादा तो अकेला अक्षय कुमार ही लेता है आज के टाईम में”..
“आपकी तनख्वाह कितनी है?”…
“क्या मतलब?”..
“पहले आप बताइए तो सही”…
“पूरे बारह लाख का सालाना पैकेज मिला है मुझे कंपनी की तरफ से”रोहित गर्व से फूला नहीं समाता हुआ बोला …
“इसमें आपके खर्चे पूरे हो जाते हैं?”…
“बड़े आराम से”…
“तो इसका मतलब आप अपने जीवन से खुश हैं?”..
“हाँ!…बहुत खुश…मेरे पास खुद की गाड़ी है..वेळ फर्निश्ड तीन सौ गज का बंगला है…बच्चे इंग्लिश मीडियम के पोश स्कूलों में पढते हैं…42″ इंची प्लास्मा टीवी से लेकर लेटेस्ट माईक्रोवेव तक और नौकर-चाकर से लेकर ड्राईवर तक …साहुलियत का हर साजोसामान मेरे पास मौजूद है…और क्या चाहिए किसी नेक बंदे को?”..
“तो इसका मतलब आप सालाना बारह लाख पा कर खुश हैं?”..
“कितनी बार बताऊँ?”…
“क्या?”..
“यही कि मैं खुश हूँ…बहुत खुश”…
“मैं हर महीने अपने काम-धंधे से पच्चीस से तीस हज़ार कमाता हूँ और इससे मैं ज्यादा खुश तो नहीं तो लेकिन हाँ…खींच-खांच के मेरे खर्चे पूरे हो ही जाते हैं और मैं इसी से खुश हूँ”…
“तो?”..
“मुझसे कम भी कमाने वाले बहुत से लोग होंगे अपने देश में?”…
“तो?”…
“आप एक लाख में खुश हैं…मैं पच्चीस से तीस हज़ार में सन्तुष्ट हूँ और बहुत से ऐसे भी होंगे जो पांच से दस हज़ार के बीच में कमा कर खुद को भाग्यशाली समझते होंगे”…
“आप कहना क्या चाहते हैं?…मैं आपकी बात का मतलब नहीं समझा”…
“जब एक इन्सान पांच-दस हज़ार से लेकर लाख रूपए महीने तक में बड़े आराम से खुश रह सकता है तो ये ‘शाहरुख’ …ये ‘सलमान’…ये ‘हृतिक रौशन’ को खुश रहने के लिए करोड़ों रूपए की क्यों ज़रूरत पड़ती है?”…
“क्यों पड़ती है से क्या मतलब?…इनकी फिल्में इससे कहीं ज्यादा पैसा कमाती हैं…इसलिए इन्हें इतनी बड़ी रकम की अदायगी की जाती है”…
“हाँ!…कमाती हैं लेकिन इसके लिए हमें-आपको अपनी जेबें काट के इन्हें देनी पड़ती है”…
“क्या मतलब?”…
“जिस फिल्म की टिकट सौ-डेढ़ सौ रूपए रखी जाती है…उसकी कीमत पच्चीस-पचास भी तो रखी जा सकती है”…
“तो?…इससे क्या होगा?”…
“ज्यादा से ज्यादा लोग हॉल पर फिल्म देखेंगे तो दाम कम होने के बावजूद भी कुल मिला के आमदनी ज्यादा होगी”…
“अरे!…कमाल करते हो आप भी…पच्चीस-पचास में तो हॉल का किराया…स्टाफ का खर्चा भी नहीं निकलेगा..आप कमाने की बात कर रहे हैं”..
“अभी कमाई हो रही है?”…
“कई बार…हाँ और कई बार…ना”…
“तो…इससे तो अच्छा यही रहेगा ना कि दाम वाजिब रखे जाएँ…टिकटों के भी और कलाकारों के भी…कम सही लेकिन आमदनी का जरिया तो बना रहेगा”…
इंस्पेक्टर मेरे कंधे पे हाथ रख बड़े आत्मीय स्वर में बोला …
“जी!…
“लेकिन ऐसे कोई अचानक कैसे अपनी मर्ज़ी से अपने दाम रातोंरात कम करने को राजी हो जाएगा?”…
“तख्ता पलट दो ससुरों का”…
“क्या मतलब?”…
“दो-चार साल तक कोई इन्हें भाव ही ना दे….अपने आप पेंच ढीले हो जाएंगे ससुरों के…दाम इनको हर हाल में कम करने पड़ेंगे…चाहे अपनी मर्ज़ी से करें या फिर दूसरों की मर्ज़ी से”…
रोहित का मेरी तरफ देखते हुए व्यंग्यात्मक प्रश्न …
“पागल हो गए हो क्या?…पहले भी तो नए लोगों के साथ बनी कम बजट की फिल्में हिट हुई हैं…अब भी हो जाएंगे….बस…कहानी में…स्क्रिप्ट में…अदाकारी में दम होना चाहिए”…
“हम्म!…
रोहित मानो हार मानने को तैयार ही नहीं …
“अरे!…इसकी चिंता तुम क्यों करते हो?…बहुत से गुणी लोग यहाँ एक चांस…सिर्फ एक चांस पाने को तरस रहे हैं…वो मुफ्त बराबर पैसों में भी काम करने को खुशी-खुशी राजी हो जाएंगे”…
“हम्म!…
“उन्हीं में से अपनी ज़रूरत के हिसाब से छांट के बढ़िया लोगों को काम दे…अपना दाव खेलो…रातोंरात सिनेमा हालों के आगे फिर से टिकट खरीदने के लिए लाईनें ना लगनी शुरू हो जाएँ तो मेरा भी नाम राजीव नहीं”…
“हम्म!…
“तो फिर क्या कहते हैं आप?”…
“(सभी का समवेत स्वर)…
{अथ श्री राजीव कथा समाप्त} 🙂
***राजीव तनेजा***
Rajiv Taneja
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